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खण्ड
-२
आराधना पक्ष
आराधना की आवश्यकता प्रायः देखा जाता है कि प्रत्येक धर्म में दर्शन पक्ष से अधिक लोग आराधना पक्ष पर जोर देते हैं । परंतु, आराधना शब्द का भी पर्याय वे क्रियाकांड या मात्र बाह्य क्रियाओं को मान लेते हैं । उन्ही में संतोष मानते हैं । इन्ही से धार्मिक होने का प्रमाणपत्र प्राप्त करते हैं । कभी यह आराधना जो साधना या तपस्या या
आत्मा में लीन होकर परमात्मपद तक हमें ले जाने वाला तत्व था, जिसमें दर्शन और ज्ञान के साथ चारित्र साधना की महत्ता थी । समझदारी पूर्वक भेद-विज्ञान की दृष्टि से ही आराधना की जाती थी । बाह्य तप की सीढ़ी से चढ़कर आँतरिक ता की ओर उन्मुख हुआ जाता था । पर'तु कालांतर में यह आराधना क्रियाकांड का पर्याय बनती गई । पूर्ण तथ्य जाने बिना ही लोग कियाये करते रहे । ज्ञान या आत्माको परखने का, मुक्तिका उद्देश्य भुलाया जाता रहा और लौकिक एषणा ही इस क्रियाकांड का उद्देश्य रह गया । झान बिनाकी एसी आराधना मुक्ति की ओर तो क्या सांसारिक सुख भी नहीं दे सकती । आराधना द्वारो कपायों से मुक्त होने के स्थान पर हम कुछ भले बुरे के लिए आराधना करने लगे, व्रत अनुष्ठान करने लगे परिणामतः उलटे कषाय बांधने लगे ।
उपरोक्त स्पष्टता को आशय इतना ही है कि हमारी आराधना रुढिगत, मात्र पर परा का निर्वाह या लेोकेषणा की प्राप्ति के लिए नही अपितु, उसका लक्ष्य इस संसार से मुक्त होने के लिएनिष्काम हो ।
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