Book Title: Jain Dharm Siddhant aur Aradhana
Author(s): Shekharchandra Jain
Publisher: Samanvay Prakashak

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Page 126
________________ ११७ मूलतः इस आराधना को लेकर ही व्यवहार या निश्चय के मापदंड स्थिर किए जाते हैं । यह सब है कि निश्चिय अर्थात आत्मा के मूल स्वरुप को जान पहचान कर उसकी ही उन्नति करने का प्रयास आशवना का मूल लक्ष्य होना चाहिए। परंतु उस आत्मा को परखने के लिए चित्त की दृढ़ता आदि व्यवहारिक मार्ग भी आवश्यक है । प्रथम अगर साध्य है तो दूसरा साधन है । साधन के बिना साध्य की उपलब्धि असंभव है । अतः यहां हम आराधना के व्यावहारिक पक्ष का विशेषरूप से विवेचन करेंगे । परंतु, उसमें भी ध्यान तो यही रखना कि हमारी ये क्रियायें स्थापित्व की प्राप्ति, मनकी शुद्धि एवं बाह्य जगत से आत्मा अंतर जगत की और प्रचार करने के लिए ही है । सांसारिक भौतिक सुखों के लिए नहीं । देवदर्शन : आरविना का प्रथम चरण देवदर्शन है । पचिप जिन सम्प्रदाय या अम्नायों में मूर्तिपूजा नहीं, वहां नामस्मरण भी इसी पूज्य भाव या श्रद्धा-भक्ति से लिया जाता है । कई लोग मूर्तिपूजा का विरोध करते हैं - कई इन पत्थरों में क्या रखा है - भी कह देते हैं । मंदिर जाने से क्या ? मन में ही मंदिर है । वगैरह... वगैरह... 1 ऐसे विधान उनके अपरिपक्व मन या विचारों के कारण ही प्रकट होते हैं । कभी-कभी उनका ग्रंथिभाव भी कारण जब कभी कोई व्यक्ति स्वार्थसिद्धि हेतु है और वाँछित फल नहीं मिलता है है । अनास्था के बीज पनप उठते हैं विरोधी हो जाता है । यदि उसे यह कर्मों का फल भोगना का उदेश्य तो उचित भूत होता है । देवदर्शन-पूजन करने जाता तब वह क्रोध से भर उठता दर्शन - । और वह ज्ञान होता कि मुझे अपने पड़ेगा-या पड़ रहा है कर्मों में समता - क्षमता Jain Education International For Private & Personal Use Only - पूजन का । मेरी आराधना भाव रहे । अन्य www.jainelibrary.org

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