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को समझना ही सम्यग्दर्शन है । यों कहना उचित है कि सप्त तत्वों का श्रद्वान ही सम्यग्दर्शन है । और तत्वों में श्रद्धा रखने का
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श्रद्धा रखते हैं । दर्शन का में आगम और पदार्थों में इसीलिए शास्त्रकारों ने श्रद्धा, रूचि सम्बग्दर्शन के पर्याय माने हैं ।
ता ही है निजस्वभाव या निज आत्मा में श्रद्धा रखना ऐसी श्रद्रा भव्य जनों में होती है । ऐसी दृष्टि प्राप्त जन मोक्ष में ही अर्थ हीं है देखना | अर्थात आत्मा रुचि या श्रद्धा को दर्शन कहते हैं । स्पर्श, प्रत्यय और प्रतीति को
सम्यग्दर्शन मूलतः दो प्रकार से भव्य जीव को प्राप्त होता हैं - ( १ ) स्वयं अन्तर से, जिसे निसर्ग कहा गया है । दूसरा बाह्य उपदेश ( शास्त्र - पठन-पाठन) से उत्पन्न अधिगमज कहा गयो है | एक स्वयं उद्भूत है दूसरा प्राप्त । निसर्गसम्यग्दर्शन में तत्त्वज्ञानजन्य पूर्व संस्कार काम करते हैं । इनके साथ ही अधिगमज में ज्ञान की अभिलापा से वह प्राप्त होता है । आगम में इस सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के अनेक निमित्त प्रस्तुत किए गये हैं । नरक गति में ( १ ) जातिस्मरण ( - ) धर्मश्रवण और (३) वेदना विभव होते हैं । इसमें से धर्मश्रवण तीसरे नरक तक माना गया है ।
मनुष्य व तिथेच गति में भी (१) जातिस्मरण ( २ ) धर्मश्रवण व (३) जितचित्रदर्शन को निमित्त माना है । जबकि देवगति में - १) जाति स्मरण ( २ ) धर्मश्रवण (३) जिन महिमा दर्शन एव (४) देवऋ दर्शन निमित्त माने गये हैं । इन निमित्तों में धर्मश्रण को छोड़कर सारे निसर्गज निमित्त हैं।
इन बाह्य कारणों के उपरांत कुछ आंतरिक कारण हैं जिनके होने पर सम्यग्दर्शन नियमतः उत्पन्न होता है | दर्शनमोहनीय कर्म के कारण आत्मा का स्वभाव वातित हो रहा है इसके अभाव
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