Book Title: Jain Dharm Siddhant aur Aradhana
Author(s): Shekharchandra Jain
Publisher: Samanvay Prakashak

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Page 121
________________ ११२ भावरुप लेप के द्वारा जो आत्मा का परिणाम लिप्त किया जाता है उसका लेश्या कहते हैं ।' __ शाब्दिक अर्थ यो किया गया है-'जो लिपन करती है उसे लेश्यो कहते हैं । अर्थात जो कर्मों से आत्मा के लिप्त करती हैं उसके। लेश्या कहते हैं ।' ताम्य कि मिथ्यात्व, असंयम, कपाय और योग ये लेश्या हैं । इन लेश्याओं के मूलतः दो भेद किए गये हैं। १. भाव लेश्या २. द्रव्य लेश्या कषाय से अनुर'जित जीव की मन-वचन-काम की प्रवृत्ति भाव लेश्या कहलाती है । आगम में इनका छः रगों द्वारा निर्देश किया है । इनमें से तीन शुभ व तीन अशुभ होती हैं । - शरीर के रंग को द्रव्य लेश्या कहते हैं । द्रव्यलेश्या ओयुपर्यन्त एक ही रहती है पर भावलेश्या जीवे के परिणामों के अनुसार बराबर बदलती रहती है । सामान्यतः द्रव्यलेश्या के ही छ भेद मानव मन की प्रवृत्ति के प्रतिबिंब हैं । (१) कृष्णलेश्या (२) नीललेश्या (३) कपोतलेश्या (४) पीतलेश्या (५) पद्मलेश्या (६) शुक्ललेश्या ।। कृष्ण लेश्या :-कृष्ण अर्थात काला । इस लेश्या का रंग भ्रमर सा माना गया है । काला रंग तीव्रतम कषाय को प्रतिबित करता है । जो व्यक्ति तीन क्रोध करने वाला हो, वैर को न छोडे, लड़ना जिसका स्वभाव हो, धर्म और दया से रहित हो, दुष्ट हो उसके कृष्णलेश्या होती है | कृष्णलेश्या वाला उपरोक्त दुर्गुणें। का भंडार होता है । ऐसे व्यक्ति सामान्यतः स्वच्छ'द विवेक रहित, इन्द्रियलंपट, मानी मायावी होते हैं। तिलायपण्णति में कहा है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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