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लेश्या
(चित्त वृत्तियों का मनोवैज्ञानिक स्वरुप) लेश्या शब्द जैन दर्शन का विशिष्ट शब्द प्रयोग है । इसका संबंध कषाय भावों के साथ है । आधुनिक संदर्भ में इसे मनोवैज्ञानिक भावों को प्रस्तुत करने वाला विशिष्ट शब्द प्रयोग भी कहा जा सकता है । प्रत्येक व्यक्ति में अच्छे और बुरे अर्थात शुभ और अशुभ भावनाएँ रहती ही हैं । उन्हें कपाय की तीव्र या मंद भावनाएँ कह सकते हैं । जैनाचार्यों की यह सबसे बड़ी देना या संकल्पना रही है कि वे मनोभावों के अनुरूप रंगों की कल्पना कर सके हैं । आज के इस वैज्ञानिक युग में जब कि रगचिकित्सा का विकास हुआ है-एवं प्रयोग भी हो रहे हैं तथा रग व्यक्ति के मनोरोगों के शमन में सिद्ध सावित हुए हैं, तब लगता है कि पूर्वाचार्यों द्वारा मनोभावों की रगकल्पना कितनी अद्भुत थी । वे वर्तमान को अतीत (कल) में देख सके थे । आज की रग-परिचर्या का मूल इन्हीं लेश्या से प्रसूत है । व्यवहारिक जीवन में भी व्यक्ति की भावनाओं के अनुसार उसके चेहरे पर रगों की तरंगे' देखी जा सकती हैं । जैसे,-प्रेम प्रसंग में चेहरे पर लाली दौड़ती है, तो भयंका गुनाह साबित होने पर कालिख पुत जाती है । हमारे छ मनोभावों का आचार्यों ने पट्लेश्या कहा है । लेश्या की सामान्य परिभाषा करते हुए वे समझाते हैं कि जिसके द्वारा जीव पुण्य-पाप से स्वयंको लिप्त करता है, उनके अधीन रहता हैं उसको लेश्या कहते हैं । गोमटसार जीवकांड में इसका रूपक में प्रस्तुत करते हुए कहा है-'जिस प्रकार आमविष्ट से मिश्रित गेरु मिट्टी के लेप द्वारा बाल लीपी या रंगी जाती है, उसी प्रकार शुभ और अशुभ
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