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चारित्र्य है । यों कहा जा सकता है कि दर्शन ज्ञान के विना चरित्र लूला लौड़ा है और चरित्र के बिना दश न ज्ञान अन्धे से हैं । तीनों का सम्यक रुप से समा ययन ही मोक्ष माग है । ' तत्त्वाथ की प्रतीति के अनुसार क्रिया करना आचरण कहलाता है 1 अर्थात मन-वचन-कम से शुभ कमों में प्रवृत्ति करना चरण है। (पंचाध्यायी उत्तरार्ध) भगवती आराधना में स्पट करते हुए कहा है कि-'जिससे हित को प्राप्त करते हैं और अहित का निवारण करते हैं. उसको चारित्र कहते हैं ।...संसार की क रणभूत बाह्य और अंतरंग क्रियाओं से निवृत्त होना चारित्र है ।"
व्यवहार दृष्टि से हमारा बाह्म आचरण भी चारित्र के अन्तर्गत ही है । अर्थान हम जो सोचकर बोलते या क्रिया करते हैं वही हमारा चारित्र है । हमारा आचरण हमे स्वयं को एवं अन्य को सुख दे सकता है एवं दुराचरण दुःस्व दे सकता है । निश्चय से आत्म प्रदेश पर लगे हुए कषाय आदि मलों को धोना या उनकी तप द्वारा निर्जरा करना ही चरित्र है । जैन शास्त्रों ने इसी निवृत्ति मूलक चारित्र की महिमा का स्वीकार किया है । हम श्रावक के १२ व्रतों का पालन करने से इस गरित्र को पालने का प्रारंभ कर सकते हैं और उत्तरोत्तर आन्तरिक व बाह्य तपों द्वारा मोक्षतत्त्व तक गतिमान हो सकते हैं । इसके लिए हमें सर्व प्रथम मन का भटकाव एवं इच्छाओं पर लगाम लगानी होगी । इच्छाओं को रोकना ही तप है । हम दर्शन और ज्ञान से सत्य को समझ चुके हैं । हमें ज्ञान दृष्टि मिल चुकी है-बस अब तो-चारित्रारूढ होकर कर्म ही जलाते हैं । चारित्र धारण में इन्द्रिय संयम की सर्वाधिक प्रधानता है । व्यावहारिक दृष्टि से पांच महाव्रत, पांच समिति और तीन गुप्त चारित्र के भेद है | या इन १३ के सहित चारित्र्य धारण किया जाना चाहिए । क्रमशः व्रतों को धारण करते
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