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प्राप्त होता है उसी समय मिथ्याज्ञान का भी निवारण हो जाने से सच्चा ज्ञान प्राप्त हो जाता है । जैसे बादलों के हटने पर प्रकाश
और प्रताप एक साथ प्रकटते हैं उसी प्रकार दर्शन और ज्ञान भी एक साथ उत्पन्न होते हैं । उन्हें सहचारी माना गया है । इन दोनों के प्रकट होने के बाद ही सम्यक चारित्र प्रकट होता है ।
यदि तत्त्वों में श्रद्धान सम्यग्दर्शन है तो उन्हें जानना ज्ञान प्राप्त करना सम्यग्ज्ञान है | इन्हें नय और प्रमाण दो स्वरों से जाना जाता है । अर्थात अभेद या अखंड ज्ञान प्रमाण ज्ञान है, एवं धर्म-धर्मी का भेद होकर धर्म द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होता है वह नय ज्ञान है । सम्यग्ज्ञानी पुरुष वस्तु को यथातथ्य रुप से सदेह रहित जानता है । वह जिन प्रणीत हेयोपादेय तत्वों का ज्ञानी होता है । पदार्थों के ज्ञान के साथ आत्मा के ज्ञान का भी वह ज्ञ न बनता जाता है ।
महापुराण में कहा है-'जैन शास्त्रों का स्वयं पढ़ना' दूसरों से पूछना पदार्थ के स्वरूप का चिन्तवन करना, श्लोक आदि कंठस्थ करना तथा समीचीन धर्म का उपदेश देना ये पांच ज्ञान की भावनाएँ जाननी चाहिए । इतना ही नहीं यह ज्ञान तभी पूर्ण या सम्यकू बनता है जब ज्ञानी पुरुष 'स्वाध्याय का काल जान कर, मन-वचन कर्म से शास्त्र का विनय, यत्न करते हैं पूजा सत्कारादि से पाठादिक करते हैं, गुरु तथा शास्त्र का नाम नहीं छिपाते, वर्णपद एवं वाक्य को शुद्ध पढ़ते हैं, अनेकान्त स्वरुप अर्थ को ठीक ठीक समझते हुए पाठादिक शुद्ध पढ़ते हैं वे ही सम्याज्ञानी शानाचार के आठ भेड़ो के ज्ञाता होते हैं ।
आचार्योंने इस ज्ञान की प्राप्ति के लिए कुछ अनुयोग या उपायों का निर्देश किया है, वे हैं निर्देश, स्वामित्व, साधन,
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