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प्रकार यह ' स्यात' वस्तु के कथित धर्मों के साथ अन्य स्थित धर्मों का रक्षक बन जाता है । जिस वस्तु को जिस परिस्थिति और संदर्भ में देस्वते हैं उस समय तथाकथित गुण मुख्य बन जाते हैं पर अन्य गुण नहीं नष्ट हो जाते । यदि अन्य व्यक्ति अन्य गुणों की अपेक्षा वस्तु का कथन करें ते। उसे असत्यवाणी कैसे कहा जा सकेगा ? उदाहरणार्थ एक व्यक्ति पत्नी की अपेक्षा से पति है, उसी समय वह माँ की अपेक्षा से पुत्र भी हैं । यहाँ व्यक्ति को परखने का दृष्टिकोण है । इसी प्रकार प्रत्येक वस्तु, विचार आदि को समझना चाहिये । इससे यह भी स्पष्ट हुआ कि 'स्याद्वाद' सोचने की चिंतन की विशाल भूमिका प्रदान करता है । हम जिस समय जो लोचते हैं वह उतने में पूर्ण निश्चय है-संशय नहीं । सच तो यह है कि वस्तु या विचार गत 'यही है ' या ' इसके अलावा कोई सत्य नहीं' जसे एकांगी भाव ही संघर्प, मतभेद एवं संकीर्णता को जन्म देते हैं। व्यक्ति को अनुदार बनाते हैं जो अपनी ही बात मनवाने को हिंसात्मक तक हो जाता है । आज के संघर्षों की जड ऐसे एकांकी विचारो का परिणाम है । विद्वानों ने इस 'अस्ति' के माध्यम से परीक्षण कर विविध दृष्टियों से सत्य को समझने का प्रयास किया । एक धिकार वाद का दूषण इसी से मिटाना संभव है। ‘स्यात शब्द एक ऐसी अंजनशलाका है जो उनकी दृष्टि को विकृत नहीं होने देती, वह उसे निर्मल और पूर्णदर्शी बनाती है ।
यह जैनधर्म की विशालता ही है कि उसने परस्पर विरोधी मालूम होने वाले धर्मों को भी सामंजस्य से देखा और परखा । इसीलिए उसे वास्तव बहुम्व वादी कहा गया है । वह प्रत्येक वस्तु वा विचार पर सहानुभूति से विचार कर निरर्थक भ्रमजालों को तोड़ता है और विचारों को तो शुद्ध करता ही है, वाणी को भी
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