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स्याहाद भारतीय दर्शनो में जन दर्शन की विशिष्टता है उसका मौलिक प्रदान अनेकांत दर्शन । इस दर्शन को प्रस्तुत करने की शैली का नाम ही स्वाहाद है । एक और जहां अनेकांत मन के द्वन्द्वो का परिमार्जन करता है वही वचन की साष्टा, निर्द्वन्द्वता इस स्याद्वाद पूर्ण भाषा से प्रकट होती है । इससे पूर्व किं विषय पर गहराई से विचार करें-पहले इस स्याद्वाद के शाब्दिक एवं निहितभाव के अर्थ को समझ लें । " स्याद्वाद" " स्यात" एवं “वाद" दो पदों का संयोजन है | जैन वाङ्मय में इस " स्यात् " का अर्थ "कथंचित् " अर्थात् एक निश्चित अपेक्षा माना है और “वाद" कथा का द्योतक है । इस तरह यों कहा जा सकता है कि एक निश्चित अपेक्षा से किया गया कथन ही स्याद्वाद है | थोड़ा सा
और गहरे उतरें तो निश्चित अपेक्षा में एक निश्चित दृष्टिकोण या निश्चित विचारों का बोध निहित है । जो यह संकेत देता है कि वस्तु के जिस अंश के बारे में जो दृष्टिकोण प्रस्तुत किया जा रहा है वह उस अंश का पूर्ण कथन है । पर साथ ही यह भी दिशानिर्देश होता है कि कथित अंश के उपरांत अन्य शेष अंश में अन्य गुण भी हैं । युग पुरुष हेमचन्द्राचार्य ने सिद्धहेमशब्दानुशासन' ग्रंथ में स्पष्ट करते हुए लिखा है कि ' स्यात् ' ' अर्थात् ' 'अमुक अपेक्षा से' या अमुक दृष्टि कोग | स्यात् यहाँ अव्यय है जो अनेकांत सूचक है । अर्थात अनेकांत रूप से कथन शैली ही स्याद्वाद का अर्थ है | इसका दूसरा नाम अनेकांत है । अनेक एवं अन्त शब्द का युग्म है । यहां अंत का अर्थ धर्म, दृष्टि, दिशा अपेक्षा किया जायेगा । सरल शब्दों में कहें तो यह कहा जा सकता है कि वस्तु के हम जिस गुण की चर्चा प्रमुख रूप से
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