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कर्म बंधन होते हैं । उन्हें रोकना आवश्यक तो हैं ही उनका जला देना या क्षय करना ही लक्ष्य होगा । जब तपस्या के माध्यम से कर्म अर्थात आत्मा से चिपके हुऐ पर पदार्थों का नाश हो जायेगा तब आत्मा पवित्र, निर्भर एवं त्रिलोक त्रिकालदर्शी बन जायेगा | केवलज्ञान होनेतक चार घातिया एवं तत्पश्चात चार अघातिया कर्मों के नष्ट होने पर तुंबी की तरह निर्भार आत्मा मोक्ष पद या निर्वाण को प्राप्त हो सकेगा ।
आचार्य बतलाते हैं- 'बंध कर्मों का आत्यन्तिक क्षय सिद्धि में भी उल्लेख
मोक्षका लक्षण तत्त्वार्थ सूत्र में हेतुओं के अभाव और निर्जरा से सब होना ही मोक्ष है । इसी प्रकार सर्वार्थ है - 'जब आत्मा कर्ममल कलंक और शरीर को अपने से सर्वथा जुदा कर देता है तब उसके जो अचिन्त्य स्वाभाविक ज्ञानादि गुणरूप और अव्याबाच सुख रूप सर्वथा विलक्षण अवस्था उत्पन्न होती है उसे मोक्ष कहते हैं । ऐसी ही व्याख्यायें राजवार्तिक, समयसार आदि ग्रंथों में हैं । यद्यपि तात्त्विक दृष्टि से मोक्ष के भी भेद-उपभेद हैं । परंतु हमे इतना ही जानता है कि निजश से निर्मल आत्मा ही मोक्ष का अधिकारी है । जो जीव कर्ममल से मुक्त होकर उर्ध्व लोक के अन्तकी प्राप्ति करता है वह सर्वदर्शी बनकर अतिन्द्रिय सुख को प्राप्त होता है । ऐसा जीव अर्हतपद की प्राप्ति करता है । कर्मों की निर्जरा होते ही जीव अनिर्वचनीय सुखका अनुभव करता है अशरीरी बन जाता है - सिद्ध हो जाता है ।
पुण्य-पाप : सात तत्त्वों को मानने वाले आचार्यो ने पुण्य-पाप को आस्व एवं बन्ध के अन्तर्गत माना है । क्योंकि शुभ या अशुभ अर्थात पुण्य या पाप कर्म आव में आने से ही शुभ या अशुभ बंध होता है तद्नुसार ही कर्मों का उदय होता है ।
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