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हमें भोगना पड़ता है | फिरभी जिन आचार्यों ने नव तत्वों का स्वीकार किया है उन्होंने मूलतः इनका संबंध शुभाशुभ भावों से ही मूलतः स्वीकार करते हुए विवेचन किया है । ऐसे शुभ कार्य जिनसे उत्तम गति सम्पन्नता एवं सुस्व मिले वे पुण्य कार्य हैं जबकि इससे विरुद्ध दुखदायी कार्य पाप कार्य हैं । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय एवं अन्तराय कर्मों को अशुभ होने से पाप कर्म कहा गया हैं । अन्य शेष में शुभ एवं अशुभ दोनों प्रकृतियाँ होने से पाप-पुण्य के अन्तर्गत आते है । ( इन कर्मों की चर्चा 'कर्म' प्रकरण में हो चुकी है )
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