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मूर्ख बनाने वाली बात ही कह दी । श्री रामानुजाचार्य या बल्लभाचार्य इसे विरोधाभाषी दूषण उपस्थित करने वाला दर्शन ही मानते रहे । चूंकि ये सब वेदों के एकांतवाद से प्रभावित है अतः ऐसी विचार वैविध्य की भाषा दर्शन को मानना संभव भी कैसे होता ?
इन सभी विचार धाराओं पर विचार प्रकट करते हुए डॉ. महेन्द्रजी ने कितना सचोट तर्क प्रस्तुत किया है-व्यतिकर परस्पर विषय गमन से होता है यानी जिस तरह वस्तु द्रव्य की दृष्टि से नित्य है तो उसका पयार्य की दृष्टि से भी नित्य मान लेना या पर्याय की दृष्टि से अनित्य है तो द्रव्य की दृष्टि से भी अनित्य मानना । परंतु जब अपेक्षायें निश्चित हैं, धर्मों में भेद हैं, तब इस प्रकार के परस्पर विषयागमन का प्रश्न ही नहीं हैं । अखंड धर्मी की दृष्टि से तो संकर और व्यक्तिकर दूषण नहीं, भूषण हो है । भगवान महावीर ने उपेय तत्त्व के साथ सांगोपांग वर्णन करके सारे संशय दूर किये ।
उपाय तत्त्व का भी
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क्षु. जिनेन्द्रकुमार वर्गीजी ने जैनेन्द्र सिद्धांतकोश में कितना स्पष्ट अर्थ दिया है मुख्य धर्म को सुनते हुए श्राता को अन्य धर्म का स्वीकार होते रहे । उनका निषेध न होने पात्रे इस प्रयोजन से अनेकान्तवादी अपने प्रत्येक बाह्य के साथ स्यात् या कथंचित् शब्द का प्रयोग करता है ।
इस विवेचन या चर्चा-चिंतन के पश्चात् इतना स्पष्ट हो ही गया कि प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मी है । उसकी परख विविध दृष्टिकोण से की जाये तो उसका सही मूल्यांकन किया जा सकता है । प्रत्येक पदार्थ पर्यायानुसार परिवर्तनशील है पर द्रव्यार्थिदृष्टि से स्थिर भी है । स्याद्वाद का व्यवहारिक स्वरूप व्यक्तियों के बीच प्रेम, मैत्री और समभाव को पनपाता है । चित्तको राग- - द्वेष
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