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वैविध्य है-या पर्याय परिवर्तन की स्वाभाविक प्रक्रिया है । सच कहें तो संसार की परिवर्तनशीलता इसी गुणमयता के कारण है इसीलिये जनदर्शन के अनुसार संसार का कभी पूर्ण नाश नहीं होता । उसमें निरंतर क्ष्य और निर्माण को प्रक्रिया अनवरत चलती रहती है । हाँ ! द्रश्य परिवर्तन होते रहते हैं । जनदर्शन में इस स्याद्वाद की मदद से हम वस्तु के अनंत धर्मों अर्थों को पकड़ सकने में सफल बनते हैं।
जैनाचार्यों ने स्याद्वाद को श्रुतजान का सकलदेश रुप माना है । जिसे 'प्रमाण' कहा है । जो वस्तु के अखंड स्वरुप को ग्रहण करता है । आचार्य अकलंकदेव ने सरलता से स्पष्ट किया जहाँ 'अस्ति' शब्द के द्वारा सारी वस्तु समग्र भाव से पकड़ी ली जाय वह सकलदेश है ।.. सकल देश में समग्र धर्म यानी पूग धर्म एकभाव से गृहीत होता है । इसी प्रकार आ. सिद्धसेनगणी अभयदेवसूरी आदि ने 'सत असत और अवक्तथ्य' इन तीनों भागों को सकलादेशी माना है । जबकि उ. यशोविजयजीने सातों भंगों को सकलादेशी एवं विकलादेशी (एक धर्म का मुख्य रुप से कथन करने की पद्धति) माना है। ___इस ‘स्याद्वाद' को लेकर अनेक धर्मावलंबी विद्वानोंने विविध रूप से मूल्यांकन किया है जो अनेक प्रकार से विवादास्पद या स्थाद्वाद को पुर्ण रुप से आत्मसात् न करने के कारण या एकाँगी इष्टि के कारण दोष युक्त ही रहा। अरे ! ये आलोचक या मत प्रवर्तक महावीर की उस दृष्टि को नहीं समझ सके जिस में वस्तु को अधिक से अधिक कथनों से जानने समझने का विधान है । जो सप्तभोगी के सिद्धांत से प्रसिद्ध हुई । वस्तु को गुणात्मक, ऋणात्मक या उभय रूपों से देखने का प्रतिपादन ही इस तथ्य का द्योतक है । कि मात्र एक ही कथन या दृष्टि से वस्तु के अन्त धो का कथन असंभव है और उसके प्रति पुर्ण न्याय के लिए ये
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