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नेत्र से सदैव देखता रहता है और अप्रमादी बनकर इन को को आने से रोकता रहता है । वह ऐसे काई कार्य या भावना नहीं करता जिससे इन कमेंा को प्रवेशपाने का मौका मिले । साधना की उच्च भूमि पर स्थित साधक जानता है कि संसारचक्र में भटकानेवाले ये कर्म ही मेरे परम शत्रु हैं, मोक्षमार्ग के बाधक हैं । ऐसी भावना और सजगता के कारण नए कर्मों का बध रोका जा सकता है । ऐसी भावना से नए कर्म तो रुकते है पुराने कम भी क्षयत्व प्राप्त करने लगते हैं । कर्मों का आगमन ही संसार है । संसार ही मोह माया भ्रमण है। इसे साधक रोकता है। .
(८) संवरानुप्रेक्षा : ‘स'वर' अर्थात रुकना-रुकावट-श्रमना आदि । आत्म-साधक जब शुभा-शुभ कर्मो को रोकने के लिए तत्पर बनता है तब वह संसार से अलिप्त या तटस्थ बनने लगता है । नए कर्मो का बंध रुक जाता है । यह नव-कम-बधन का रूकना या थमना ही संवरभाव है । ये कहना समचीत होगा कि छिद्र युक्त घट के छिद्र बन्द हो जाते हैं । अभी तक उसे दो मोर्चों पर रत रहता था-एक आनेवाले कर्मो से लोहा लेना था
और दूसरे संचित कर्मो का क्षय करना था । जब संवर भाव दृढ़ होते हैं तब तक आस्रव या कर्मों का आगमन थम जाता है । इससे आनेवाले कर्मी की चि ता कम हो जाती है । साधक दूने वेग से संचितकमी का क्षय या निर्जरा करने लगता है। वह मन वचन और काया से आत्म ध्यान में लीन होने लगता है । उसकी चित--एकाग्रता इतनी आत्मलक्षी और दृढ़ हो जाती है कि बाह्य कम द्वारे पर ही सिर पटकर रह जाते हैं । कहा भी है कि लोभ या लालच कमजोर को ही दबाते हैं। यहां तो साधक बन्न हो गया है। उसका सहसारचक्र मुलरिल हो रहा है । वह साक्षः
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