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उसके प्रति अनासक्त बनेगा तो कर्मभाव उससे कभी नहीं जुड़ सकते । पर, जरा भी ढील होगी तो हम लिपट जाये गे । इन्द्रियों के असंयम के कारण हम दुखी हों और दोष कर्मों को दे यह भी 'बराबर नहीं'। कभी-कभी हम अपने दोषों को या असंयम के ढकने के लिए कर्मों को दोष देकर छूटना चाहते हैं या कुछ संतोष प्राप्त करते हैं ।
कर्म का पर्यायवाची जबसे भाग्य बन गया तबसे बड़ी अराजकता व्याप्त हुई है । निष्क्रिय, आलसी और सामाजिक रूढ़ियों से प्रस्त लोग इस भाग्य या कम की दुहाई देते हैं ।
ज्ञानावरण कर्म जीवके ज्ञान गुण का घात करता है । अर्थात जीव के ज्ञान गुण पर दूषित आवरण छा देता है । जब ज्ञानी का 'अनादर, उनके प्रति प्रतिकूल आचरण- -द्वेषभाव, कृतघ्नवर्ता, ज्ञानदात्री पुस्तकों - शास्त्रों का अपमान, ज्ञानदान में प्रमाद व द्वेषबुद्धि आदि कार्य करने वाले जीव को ज्ञानावरण कर्म का बंध होता है । इसी प्रकार दर्शनवान या दर्शन के साधनों के साथ उपरोक्त रूप से कुव्यवाहार आदि कृत्या करने से दर्शनावरण कर्मका बध होता है । उत्तम वैराग्य प्रेरित दर्शनीय मूर्ति आदि के प्रति उपेक्षा या अनादर का भाव इसमें समाहित होता है ।
वेदनीय अर्थात वेदना प्रदान करानेवाले । सुख-दुःख का वेदन या अनुभव इस से होता है । यह वेदनीय दो प्रकार की हैं (अ) सातावेदनीय ( द ) असातावेदनीय | अनुकपा, सेवा, क्षमा, दया आदि से सुखात्मक संतोष दायी अर्थात वातावेदनीय कर्म का 'बध होता है । जबकि उसके विपरीत वर्तन से असातावेदनीय कम का बध होता है । इससे स्वयं दुःखी रहते है। जैन धर्म साता या संतोषदायी को भी बंध कहने की बात कर सकता है । अन्ततो
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