________________
६३
ऐसे समय कर्मयोग से हुआ है - कहकर यदि हम कमजोर का रक्षण न करें, भूखे को भोजन न दें या जख्मी की सेवा-मदद न करें तो हम जड़, दुष्ट माने जायेंगे । व्यक्ति अपने परिणामों को भोग रहा रहा हो, पर, समय पर उसकी सहायता करना भी क धर्म हैं । विवेक से हमें निर्णय लेना चाहिए ।
*
जैनदर्शन इस कर्म के संबंध में स्पष्ट हैं । जौनदर्शन की दृष्टि से जीव की क्रिया-प्रवृत्ति द्वारा कर्मव * १ के पुद्गल जीव की ओर खिंचकर उससे चिपक जाते हैं उन पुद्गलों को कर्म कहा गया है । कर्मणा के पुद्गल लोकाकाश में सर्वत्र व्याप्त है । पर, वे जीव की क्रिया प्रवृत्ति द्वारा आकृष्ट हो कर जीव से संबद्ध या चिपकते हैं तभी कर्मसंज्ञा से अभिहीत होते हैं । इस प्रकार जीव बंध कार्मिक पुद्गलों को द्रव्यकर्म कहा गया है। जीव के राग द्वेषात्मक परिणाम को भाव कर्म कहा गया है ।
आत्मपरीक्षा में कहा गया है- "जीव के जो द्रव्य कर्म हैं वे पौद्गलिक हैं और उनके भेद अनेक है । तथा जो भावकर्म हैं वे आत्मा के चैतन्य परिणात्मक हैं क्योंकि आत्मा से कथंचित अभिन्नरूप से स्वभेद्य प्रतीत होते हैं और वे क्रोधादि रूप हैं ।" pornर्म और भावकर्म पारस्परिक रूप से कारणभूत होते हैं ।
कर्म का आगमन : जैसा कि कह चुके हैं कि जैनदर्शन में कम अर्थात् कर्मपरमाणुओं ( कर्मवर्गणा) की जीव कीं क्रिया के अनुसार उनसे संलग्न होना है । इस खिंचाव चिपकाव संलग्नता
* १ कर्मवर्गणा पुङ्गल द्रव्य कीएक हैं जो संसार में व्याप्त है..
Jain Education International
३. प्रकार की चर्गणाओं में से
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org