________________
सप्ततत्त्व मीमांसा
तत्त्वों की मीमांसा करने से पूर्व तत्त्व शब्द को समझना चाहिए । सवोर्थ सिद्धि में वस्तु के निज स्वरूप को हो तन्त्र कहा गया है । "जिस वस्तु का जो भाव है वह तत्व है ।" इसी प्रकार का अर्थ बोध राजवार्तिक एव समाधि शतक टीका में भी व्यक्त हुआ है । पचाध्यायी पूर्वाध में इसी भाव का स्पष्ट करते हुए कहा है- 'तत्त्व का लक्षण सत है ।' अथवा सत ही तत्त्व है जिस कारण से कि वह स्वभाव से ही सिद्ध है, इसलिए वह अनादि निधन है, वह स्वसहाय है और निर्विकल्प है । धवला में इसे श्रुतज्ञान का लक्षण माना है । तत्वार्थ के सौंदर्भ में ही यह स्पष्ट कहा गया है कि 'अर्थ' माने जो जाना जाये । तत्त्वार्थ माने जा पदार्थ जिस रूप से स्थित है उसका उसी रूप में ग्रहण । (राज वार्तिक) निश्चयrय से आत्मा को ही सच्चा तत्व कहा गया है । तार्थ सूत्र में तो उमास्वामीजीने तत्वों पर श्रद्वा करने वाले का सम्य दृष्टि कहा है । सरल ढंग से यों रखा जा है कि संसार में जन्म-मरण के दुखों को झेलने वाला प्राणी यदि इन दुखों से छुटकारा पाना चाहता है तो उसे इन तत्वों को समझना होगा । जीवन में चारित्र्य रूप धारण करना होगा । जीव की मोक्ष तक का यात्रा के विविध सोपानों (आयामें।) के रूप में इन तत्वों को प्रस्तुत किया जा सकता है ।
हम पिछले प्रकरण में कर्म की विषद व्याख्या एवं कर्म बाधन आदि की चर्चा कर चुके हैं । इन कर्मों के ब'धनों से बूटकर उत्तम सुख में जो प्रस्थापित करे वही धर्म है । जीव स्वय कर्मों को बाँधता हैं उन्हीं में उसे स्वयं ही छूटना भी है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
५
www.jainelibrary.org