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संसारी का अर्थ ही है भ्रमण करनेवाला । संसारी शब्दही 'सम' उपसर्ग पूर्वक 'स्' धातु से बना है । 'सृ' का अर्थ ही भ्रमण करना अर्थात संसारी जीव चौरासी लाख योनियों एवं चारों गतियों में भ्रमण करता है ।
संसारी जीव के भी-(१) स्थावर और (२) त्रस दो भेद हैं । जिन जीवों का दुख मिटाकर सुख प्राप्त करने की प्रवृत्ति, चेष्टा, गति आदि नहीं हैं, वे स्थावर हैं । ये स्थावर जीव पृथ्वीकाय, जलकाय, तेजस्काय, वायुकाय एवं वनस्पतिकाय पांच प्रकार के होते हैं । जैनदर्शन ने ही सर्व प्रथम इन पांच प्रकार के स्थावरों में जीव की कल्पना की और बाद में विज्ञान ने भी प्रयोगों द्वारा इनमें जीव के अस्तित्व का स्वीकार किया । ये पांचों में स्पर्शन द्वारा अनुभव की शक्ति या क्रिया पाई जाने से इन्हें एकेन्द्रिय बीव के अन्तर्गत माना है । इन एकेन्द्रिय स्थ वर के भी (१) सूक्ष्म एव (२) बादर भेद किए गये हैं । अर्थात जो इन्द्रियों से दृष्ट नही, पर हैं, सूक्ष्म एवं जो स्थूल रूप से दृष्ट हैं वे बादर स्थावर जीव कहे गये हैं । जैसे माटी, पत्थर, कुत्रा, नदी, अग्नि, दीपक, अनुभव में आनेवाला वायु, वृक्ष, शाखा, फूल फल आदि वादर पच प्रकारी स्थावर हैं ।
दूसरे प्रकार के 'स' जीवों में दुख मेट कर सुख प्राप्ति की चेष्टा क्रिया या गति विद्यमान होती है । ये त्रस दो, तीन, चार और पांच इन्द्रियों वाले होते हैं । लट आदि जीवों के स्पर्शन और रसना नामक दो इन्द्रियां होती हैं । चीटी, जु आदि के इन दो के उपरांत घ्राणेन्द्रिय होती है अतः वे त्रिइन्द्रिय जीव कहलाते हैं । जब कि स्पर्शन, रसना, घ्राण एवं चक्षु इन चार इन्द्रियों के धारक जीव चार इन्द्रिय धारी होते हैं । जैसे मक्खी, विच्छ, भौरां. आदि । जिनके इन चार इन्द्रियों के उपरांत
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