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बंध :- बंध अर्थात जुड़ना या बंधना । जीव और कर्म के पारस्परिक संयोग को या मिलर को बंध कहा गया है । सरल शब्दों में कहें तो जीव के साथ आस्त्रत्र द्वारा जो कर्म सलंग्न होते हैं वहीं बंध है । शुभ कर्मों के आत्रय से शुभ और अशुभ कर्मों के आस्त्रब से अशुभ कर्म होते हैं । जैन धर्म में शुभ को भी अशुभ की तरह बंध का या बंधन का कारण माना है क्योकि संसार या गतियो में भ्रमण दोनों कराते हैं । एक लोहे की वेडी है तो दूसरी सोने की । आनव और बध में थोड़ा सा भेद है । द्रव्यसंग्रह में स्पष्ट करते हुए कहा है- प्रथम क्षण में जो कर्म स्कंधो का आगमन है, वह आस्रव है और कर्मरकंथों के आगमन के पीछे द्वितीय क्षण में जो उन स्कंधों का जीव प्रदेश में स्थित होना सा बध है । यहां एक ध्यान रखना है कि आत्मा के साथ आखव द्वारा संयाजित कर्मा का एकमेक हाकर एक रासायनिक नया ही रूप बनता है वही बध है। दोनों अलग-अलग मात्र संयोज रूप नहीं रहते । जीव और कर्म परस्पर प्रभावित होकर नए रुप को ग्रहण कर लेते हैं । धवला में भी इसी आशय का उल्लेख है-'द्रव्य का द्रव्य के साथ तथा द्रव्य और भाव का क्रम से जा संयोग और समवाप है वहीं बच कहलाता है।" विविध अपेक्षाओ से इसके विध-विध भेद किए गये हैं । व्यक्ति इन्हीं बधों के कारण विविध रूप, योनि, शरीर, सुख-दुख, गति आदि थे। प्राप्त करता है । कमों का बन्ध द्रव्य क्षेत्रादि की अपेक्षा बँधता है । आचार्यो ने अज्ञान, रागादि का ही बन्ध का मुख्य कारण माना है ।
संवर : जिस प्रकार आसत्र अर्थात आना । उसी प्रकार संबर अर्थात रुकना । यों कहा जा सकया है कि जिस प्रकार कमरे की सारी खिड़कियां या दरवाजे खुले होने पर तेज आँधी
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