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जीव, कर्मों को भोगते समय जो भाव करता है उसका वह स्वयं कर्ता माना जाता है । ये भाव पाँच प्रकार के माने गए हैं । औपशमिक, क्षायिक, औदायिक क्षायोपशमिक और पारिणामिक । जब कर्मो को उदय में न आ सकने योग्य बना दिया जाता है । तब वे औपशमिक भाव कहे जाते हैं । कर्मो का क्षय होने पर क्षायिक भाव एव जव कुछ कर्मों का क्षय ब कुछ का उपशम होता है तब उन्हें क्षायोपशमिक भाव कहो जाता है ।
कर्मो के उदय से होने वाले भाव औदयिक भाव कहलाते हैं और कर्मो' के निमित्त के विना जो भाव होते हैं उन्हें पारिणामिक भाव कहते हैं । मूलतः ये कर्म तो निमित्त मात्र हैं-जीव न स्वयं इन भावों का कर्ता है । जीव कर्मों का कर्ता एवं भोक्ता स्वयं है। सुखात्मक-दुग्वात्मक अनुभूति इसका प्रमाण है ।
जैनदर्शन में 'जीव' शरीर प्रमाण माना गया है । अर्थात प्राप्त छोटे या बडे शरीर में तदनुरूप हो जाता है। छोटे या बड़े होने पर भी उसके प्रदेशों की हानि नहीं होती न ही वृद्धि होती है । वह असंख्यात प्रदेशी ही रहता है ।
जीव के भेद : सामान्यतः जीव के दो भेद हैं : (१) संसारी जीव (२) मुक्त जीव
कर्म बंधनों से आबद्ध जन्म मरण को भोगता हुआ विविध गतियों में भटकने वाला जीव संसारी जीव है और जो इन कर्मो के बधन को काट कर मोक्ष में स्थित हो गया वह मुक्त जीव है। मुक्त जीव समानधर्मा होने से उनमें भेद नहीं होते परंतु संसारी जीवों के विविध भेद हैं।
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