________________
जैन दर्शन की विशेषता है कि वह किसी भी वस्तु को जाने समझे बिना अपनाने को नहीं कहता । 'पहले जानो तब मानों' का स्पष्ट सिद्धांत वहां लागू होता है । इन तत्वों के आधार पर हम वस्तुके स्वरुप, उनकी पहचान करते हैं । बधे कर्मों को छोड.ने का उपाय ढूढते हैं । नयों के आगमन को रोकते हैं। बद्ध कर्मों को नष्ट कर 'मुक्त' बनने का प्रयास करते हैं । जीवन का योगक्षेम इन्ही पर निर्भर माना गया है । इन तत्वों को सात एव' नव भागों में विभाजित किया गया है-(१) जीव (२)अजीव(३)आस्नव ४)बध (५ संवर(६)निर्जर(७ मोक्ष । नव तत्व मानने वालों ने पुण्य और पाप इन दोनेां को पृथक ताव माना है । जब कि सात तत्व मानने वालों ने पाप और पुण्य की गणना आस्रव और वध के अन्तर्गत की है ।
समयसार में इन सप्त तत्त्वो में केवल जीव व अजीव की ही प्रधानता मानी है । पचाध्यायी में कहा है। “ ये नव तत्त्व केवल जीव और पुद्गल रूप हैं, क्योंकि वास्तव में अपने द्रव्य क्षेत्रादिक के द्वारा कर्ता तथा कर्म में है अनम्यत्व नहीं है । प्रायः सभी आचार्यों ने माना है कि जीव और पुद्गल के संयोग से बने हुए सप्त पदार्थ घटित होते है । या परस्पर में सबध को प्राप्त उन दोनों जीव ओर पुद्गल के ही निमित्त नैमिभिक सबध से होने वाले भाव ये नघ पदार्थ हैं ।
इन तत्त्वों का जो कम निर्धारित किया गया है उसका कारण प्रस्तुत करते हुए आचार्य सर्वार्थसिद्धि में कहते हैं-'सब फल जीव को मिलता है । अतः सूत्र के प्रारंभ में जीव का ग्रहण किया है। भजीव जीव का उपकारी है वह दिखाने के लिए जीव के बाद अजीव का कथन किया है । आमत्र जीव भौर अजीब दोनों को विषय करता है अतः इन दोनों के बाद आरव का ग्रहण किया है । बंध मानव पूर्वक होता है, इसलिए आमाब के बाद बन्ध
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org