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तो सुख भी बंधन है। है चाहे सोने की जंजीर से ही क्यों न हो ।
मोहनीय कर्मनिरतर जीव को मोहित किए रहता है । जीव मोह जाल से मुक्त नहीं हो पाता। इसके भी (अ) दर्शन माहनीय ( ब चारत्रि मोहनीय दो भेद हैं । असत् मर्ग का उपदेश, सन्त साधु-सज्जनों तथा कल्याण- सावना को और प्रतिकूल वर्ताव की ओर प्रेरित करनेवाले कार्य दर्शन मोहनीय का बंध कहते हैं । जबकि कषायोदयजनित तीव्र अशुभ परिणाम से सच्चे मार्ग को जानने के बाद भी उस पर आरूढ नहीं होने देना- वह चारित्र मोहनीय कर्म का वध करता है ।
आयुकर्म बांध से जीव को विविध शरीर में निश्चित समय तक रुके रहना पड़ता है । इसका छिदना ही मृत्यु है । महारंभ, महा परिग्रह, पचेन्द्रियवध एवं रौद्र परिणाम से नरक आयु का बंध होता है । मायाचारी आदि के कारण तिर्यच (पशु) आयु बंधती है । अल्य आरंभ, परिग्रह एवं ऋजुता मृदुता के गुणों से मनुष्य आयु या ब' होता है जबकि संयम मध्यम कक्षा का संयम, बालतपस्या आदि के कारण देवायु का वध होता है । इस प्रकार नरक, पशु, मनुष्य और देव चार प्रकार के आयुकर्म का बोध होता हैं ।
नाम कर्म के कारण अच्छे या बुरे शरीर और अग- उपांग की रचना होती हैं । ये नाम कर्म भी शुभ और अशुभ दो प्रकार के है। नामकर्म की द्रष्टिसे ।
हर व्यक्ति अपने कर्मों का फल भोगता है । इस सिद्धांत का स्वीकार करते हुए भी हम जीवन में सदैव तटस्थ नहीं रह सकते | उदा. किसी को कोई मारे कोई भूखे मरे, कोई मोटर से कुचला जाये -
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