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ये चा प्रकार के हैं-प्रतिबन्ध, प्रदेशबन्ध, स्थितिबंध और अनुभागबन्ध । बन्ध को प्राप्त होने वाले कर्म परमाणुओं में अनेक प्रकार का स्वभाव पड़ना प्रकृतिबन्ध है, उनकी संख्या का नियत होना प्रदेशबन्ध है। उनमें काल की मर्यादा का होना स्थितिवध है । उनमें फल देने की शक्ति का पड़ना अनुभागवध है। (जैनधर्म पृ. १४५ से उघृत)
एक प्रश्न उपस्थित होता है कि जीव मूलस्वरूप में अमूर्त होने से भूर्तरूप पुद्गल उससे कैसे बच सकते हैं ? परंतु यह अमूर्तजीव अनादि काल से एक प्रकार की राग-द्वेष-वसना, जो उसके शुद्ध स्वरुप से सर्वथा असंगत होते भी निरंतर पुद्गलों से घिरा होने से मूर्त सा बन गया है । अर्थात संसारी जीव अनादि काछ से मूर्तिक कर्मों से गधा होने के कारण एक तरह से मूर्तिक हो रहा है।
कर्म के प्रकार : मूलतः कर्मों के ८ भेद माने गये हैं। इन्हें प्रकृति वध का भेद भी माना गया है । सरल भाषा में यों कहा जा सकता है कि भाव एवं क्रिया से जिस प्रकार के कर्म वंधते है वे ही प्रकृति याने स्वभावबन्ध हैं। ये आठ इस प्रकार-हैं ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, अमराय । भाग्यकी बात सामने रखकर छूट जाना चाहते हैं । अरे ! नहीं पढनेवाला विद्यार्थी फैल होगा हा । क्या उसे कर्म का आश्रय लेकर बचने की छूट होगी ? निरूद्यमी क्या सफलता प्राप्त कर पायेगा ? क्या दहेज के अभाव में लडकियों की अवदशा भाग्य का कारण कहकर बचाव किया जा सकेगा ? "कर्म में एसा लिखा है"-"हमारे कर्मों का उदय ही ऐसा है" कहकर छुटकरा नहीं पाया जा सकता । वर्तमान शोषक और शोषितों का विस्तार इसी अव मान्यता के कारण है।
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