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बनता है तब निर'तर बुरे या अशुभ कर्मों की ओर प्रवृत्त होने लगता हैं । परिणामतः कर्णो की स्थिति और फलदान शक्ति और भी बढ़ जाती है । इन दोनों के कारण ही किसी कर्म का फल शुद्ध, किसी का देर से एव किसी का तीव्र या किसी का मंद फल प्राप्त होता है। इससे इतना स्पष्ट होता है कि मोह या प्रमादवश किए गये घोर अशुभ कर्म जो कि नर्क गति में ले जाने वाले हों-उन्हे भी जागृति प्राप्तकर घटाग या नष्ट किया जा सकता है । घोर पापी भी मुक्ति प्राप्त कर सकता है । शर्त इतनी ही है कि उसकी सुप्त-प्रमादी आत्मा जागृत बने । जागृति के आत्मबल द्वारा काय आदि के शक्तिशाली मातग पर भी अकुश लगाया जा सकता है।
(४) सचा : आबद्ध कर्म तुर'त अपना फल नही देते । अपितु कुछ समय के पश्चात् अपना फल देते हैं । जैसे शराब का नशा कुछ समय बाद ही चढ़ता है या बीज कुछ काल बाद ही पनपता है । इस कालावधि को "आबाधकाल' कहा गया है । आबाधाकाल भी कम की स्थिति के अनुसार होता है । जैन परिभाषा में कहें तो 'एक कोड़ा-कोही सागर की स्थिति में सौ वर्ष अबाधकाल होता है। अर्थात यदि किसी कर्म की स्थिति एक कोड़ा कोड़ी सागर वांधी है तो वह कर्म सौ वर्ष बाद फल देना प्रारभ करता है और तब तक देता है जब तक उसकी स्थिति पूरी न हो । तात्पर्य कि कर्म का जीव के साथ रहना ही सत्ता का परिचायक है ।
(५) उदय : मत्ता के अन्तर्गत कर्म का जीव के साथ रहना होता है जबकि उदय के अन्तर्गत वह कर्म फल देने लगता है । अर्थात कर्म उदय में आने लगता है । यह फलोदय एव प्रदेशोदय दो प्रकार का है । जब कम फल देकर नष्ट होते हैं, उसे फलोदय
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