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सामान्यरूप से स्रल ढंग से कर्म, उसका उदय और : फल आदि की चर्चा की। अब विशेष गहराई से चिंतन करते हुए कर्म की अवस्थाओं चर्चा की प्रस्तुत करेगे ।
जैन सिद्धांत की दृष्टि से कर्म की होनेवाली दस क्रियायों के दस अवस्थाओं के नाम से जाना गया है । इन्हे' 'करण कहते हैं । करण अर्थात परिणाम (धवला ) भगवती आराधना में करण शब्द का स्पष्ट करते हुए कहा है कि इन्द्रियां ही करण हैं- "क्योंकि इनके द्वारा रूपादि पदार्थों को ग्रहण करने वाले ज्ञान किए जाते हैं इसलिए इन्द्रियों को करण कहते हैं । (२) बन्ध (२) उत्कर्षण (३) अपकर्षण ( ४ ) सत्ता ( ५ ) उदय (६) उदीरणा (७) संक्रमण (८) उपशम ( ९ ) निधति (१०) निकाचना |
(१) बंध : कर्मयोग्य वर्गणा के पुद्गलों के साथ आत्मा या जीव का संबंध होना बंध है । ये पुद्गल आत्मा के साथ क्षीर-नीर की भांति जुड़ जाते हैं । ये सूक्ष्म कर्म पुद्गल आत्मा समग्न प्रदेश द्वारा ग्रहण होते हैं । प्रत्येक व्यक्ति का मानसिक- वाचिक या शारीरिक योग (क्रिया - व्यापार ) समान न होने से कर्मबंध सबके एक से नहीं होते । इसीलिए योग के अनुसार तरतमभाव होते हैं । बन्ध के प्रकृतिबध, स्थितिबंध, अनुभागबध एवं प्रदेशबांध एसे चार बांधों का उल्लेख हम पीछे कर चुके हैं ।
(२ - ३) उत्कर्षण एवं अपकर्षण : कर्म की स्थिति और अनुभाग की वृद्धि उत्कर्षण है और उनकी घटना अपकर्षण है । अशुभ कर्मों के ब'धने के पश्चात जब जीव शुभ कर्म-प्रवृति करता है तब उसके पहले बांधे हुए बुरे या अशुभ कर्मों की स्थिति और फलदान शक्ति घटने लगती है । इसके विपरीत यदि बुरे कर्मों के बाँचने के बाद भी अन्यबुरे कर्मों को बांधके अधिक कलुषित भाव
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