________________
पापकर्म । वोज्ञ स्वयं पर न बढ़ावें । जीवन जीने के लिए कर्म या कार्यरत हना आवश्यक है । ध्यान इतना ही रखना है कि जिन कार्यों के बगैर चल हा न सके उन्हें अवश्य करें । पर भोग विनोद या द्वेष भाव से अनावश्यक काय न करे ।
मंच मनुष्य की शरीर रचना से है । ऋजुता मृदुता सच्चाई या मे लमिलाप करने के प्रयत्न एवं मौजन्य भात्र से शुभ नामकर्म करते हैं जबकी कुटिलता, ठगविद्या, धोखेबाजी कर कम से अशुभ नामकर्म बँधते हैं। इन्ही शुभाशभ से सुन्दर, सुडौल या वेडोल शारिर प्राप्त होता है।
धोत्रा से इस जीव को उच्च या नीच कुल की प्राप्ति होती है । गुण याहीपा, निरभिमान, विनयी गुणों से उच्चकुल पूर्व परनिंदा, पेमात्र, अभिमान आदि से नीच कुल प्राप्त होता है।
अन्तरार कर्म के कारण इन्छिन बस्नुओं की प्राप्ति में रूकावट पदा होती है। जब किसी को दान आदि उत्तम कार्यो से रोका जाये, किसी की प्रगति में बाधा बना जाय तब उसे कर्म का बंध होता है।
ऊपर के विवेचन को यों रखा जा सकता है हमारी शुभ या अशम क्रियाओं से अच्छे या बुरे कर्म बंधते हैं और तदनुरूप ही उदय में आने पर हमें उनके परिणाम भोगने पड़ते हैं।
इन आठ कर्मों में प्रथम चार घातिया एवं अन्य चार अघातिया कर्म कहे जाते हैं।
घातियां कर्म जीव के स्वाभाविक गुणों का घात करते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org