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का कार्य मन-वाणी और शरीर की क्रिया से होते हैं जिन्हें 'योग' (जुड,ना) कहते हैं । यह राग-द्वेषात्मक होते हैं। यही आस्रव है। इन आस्नवों का आत्मा के साथ जुडने का कार्य मिथ्यात्व, अवरति प्रमाद और कपाय कहते हैं-इस दृष्टि से ये बन्ध के हेतु भी कहे जाते हैं। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि जीव की योग्य शक्ति एवं कषाय ही बध के कारण हैं | तत्वार्थ सूत्र में कहा है-"मिथ्यादर्शनाविरति प्रमादकपाययोगा वन्ध हेतवः । (अ-८ सूत्र-१) इसी प्रकार “कायवांमनः कर्मयोगः । स आस्रवः ।। (अ.ध. सू १-२)कहकर 'योग' को कर्मबध का कारण एव आस्नवे कहा हैं । कपाय के क्षय या नाश हो जाने पर योग के रहने तक जीव में कर्मपरमाणुओं का आस्रब होता तो है किन्तु कषाय के अभाव में वे ठहर नहीं सकते। जैसे हवासे उड़ती हुई धूल किसी दीवार या स्थान पर पडती है और यदि वह जगह तेली-पदार्थ ता गोंद युक्त हैं तो वह धूल उस से चिपक जाती है। यदि दीवार या स्थान साफ, चिकनी या सूखी
है तो धूल तुरत स्वय झड जाती है। इसी प्रकार मनोवाक्काय : प्रवृत्तिरुप 'योग' रुपी' हवा से कार्मिक पुदगल जीव की दीवार पर
पडते हैं और वहां कपायरुपी तेल या गेंद के सपर्क में आकर . चिपक जाते हैं । यदि वहां कपाय का अभाव होगा तो यह आस्नव ... की धूल आकर भी झड जायेगी।
इन कर्मों का रुकना या झडना उन्हें रोकने या चिपकाये रखनेवाले पदार्थ पर भीनिर्भर रहता है । यही बात योग और कषाय के सबन्ध में कही जा सकती है कि योगशक्ति जिस दजे की होगी, आगत कर्मपरमाणु भी उसके अनुसार कम या अधिक होंगे और कपाप की तीव्रता और मंदता के अनुसार वे वैसे रहेंगे। योग और कषाय से जीव के सूक्ष्म कर्मपुदगलों का बंध होता है। ये
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