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जैनधर्म और अन्य धर्मों विशेष कर वैदिक दर्शन में कर्म यद्यपि व्यक्ति के कार्यकलापों एवं तनूजन्य परिणामें को लेकर मूलभूत अंतर हैं । वैदिक दर्शन में ईश्वर को जगत का कर्ता व नियन्ता माना गया है । वहां जीव यद्यपि कर्म करने में स्वतंत्र है पर, परिणाम या दाता या फलमेोक्ता वह स्वयं नहीं । कर्म का फल ईश्वर देता है | कृत कर्मों के अनुसार अच्छा या बुरा फल ईश्वर ही प्रदान करता है | जौनदर्शन ऐसा नहीं मानता | वह कर्ता की स्वतः एव स्वयं भोक्ता की सत्ता का स्वीकार करता है । अर्थात जो कर्म करता है वहीं स्वयं उसके परिणाम को भोगता है | यहां भी अच्छे कर्म का सढ़ और बुरे कर्म का असद प्रभाव भोगना स्वीकार किया है । पर, स्वीकृति किसी द्वारा निर्णित नहीं है बल्कि आत्मा से संबद्ध कर्म - परमाणु अच्छा या बुरा प्रभाव डालकर वैसा ही फल या परिणाम प्रस्तुत करते हैं । " जैसा बोओगे वैसा काटोगे" का सिद्धांत स्वयं स्पष्ट होता है ।
'जैसा बोओगे वैसा काटोगे' के अनुसार फल भोगना निश्चित है तो व्यक्ति को चाहिए कि उसे जो भी सुख - दुःख आवें उन्हें समता भाव से भोगना चाहिए। यदि कर्मोदय से उत्पन्न सुख-दुःख का तटस्थ भाव से भोगा जाये तो नए कर्म नहीं बचेंगे अन्यथा क्लेश और भौतिक आनन्द में बह कर पुराने कर्म तो भोगेगे ही नए भी बंधते रहेंगे । परिणाम स्वरुप हम कभी कर्मों के चक्कर से छूट नहीं सकेंगे । इसीलिए मुमुक्षु इन उदित कर्मो के प्रति उदासीन या तटस्थ रहता है जब कि संसारी जीव या राग-द्वेष से लिप्त जीव उसमें दुखी या सुखी होने के भाव में बह कर नये कर्मों का ही आस्रव करता है । यों कहा जा सकता है कि भोग में हम विकारी न बने व अभाव में तृष्णावृति वाले न बनें । यदि व्यक्ति उपलब्ध भोग सामग्री के समय संयम का अकुश लगाकर
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