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जौनवम में कर्म की चर्चा करते हुए श्री जिनेन्द्रजी वर्णी अपने कोष में निर्देश करते हैं कि- 'कर्म' शब्द के अनेक अर्थ हैं यथा कर्मकारक, किया तथा जीव के साथ बांधनेवाले विशेष जाति के पुद्दल रकं । कर्मकारक जगत प्रसिद्ध है, क्रियायें समवदान व अवःकर्म आदि के भेद से अनेक प्रकार हैं... परतु तीसरे प्रकार का कर्म अप्रसिद्ध हैं केवल जैन सिद्धांत ही उसका विशेष प्रकार से निरूपण करता है | वास्तव में कर्म का मौलिक अर्थ तो क्रिया ही है । जीव-वचन-कार्य के द्वारा कुछ न कुछ करता है । वह सब उसकी क्रिया या कम है और मन, वचन व कार्य ये तीन उसके द्वार हैं । इसे जीव कर्म या भावकर्म कहते हैं । यहां तक तो सब को स्वीकार है | पर ंतु, इस भाव कर्म से प्रभावित हो कर कुछ सूक्ष्म जड़ पुद्गल स्कध जीव के प्रदेशों में प्रवेश पाते हैं और उसके साथ बँधते हैं यह बात केवल जैनागम ही बताता है । ये सूक्ष्म स्कध अजीव कर्म या द्रव्य कर्म कहलाते हैं और रूप रसादि धारक मूर्ती होते हैं । जैसे-जैसे कर्म जीव करता है वैसे ही स्वभाव का केकर ये द्रव्य कर्म उसके साथ बंधते हैं और कुछ काल पश्चात परिपक्व दशा को प्राप्त होकर उदय में आते हैं । उस समय इनके प्रभाव से जीव के ज्ञानादि गुण तिराभूत हो जाते हैं । यही फलदान कहा जाता है । सूक्ष्मता के कारण व दुष्ट मही है । (जै. सि. के प्र. २४ में )
यह कथन इस ओर इंगित करता है कि जहाँ अन्य दर्शनों में राग-द्वेश से युक्त प्रत्येक क्रिया को कर्म मानकर उसके संस्कार का स्थाई मानते हैं - वहां जैन दर्शन में रागद्वेषों से युक्त जीव की मन Tea और काया की क्रिया के साथ एक द्रव्य जीव में आता है जो उसके राग-द्वेष रूप भावों का निमित्त जाता है और आगे चलकर अच्छा या बुरा फल देता है ।
पाकर जीव से बध
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