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ज्ञन हो गया, चारित्र्य साधना का योग हो गया -साधक मे क्ष-लक्ष्मी को प्राप्त कर लेता है ।
(१२) धर्मस्वाख्यातानुप्रेक्षा : इस भावना तक यात्रा करने बाला साधक यात्री राग- -द्वेष आदि कषाय भाव से ऊपर उठ कर श्रावक वा मुनि धर्म से ऊपर उठ कर एक मात्र आत्मधर्म की आराधना करने लगता है | आत्मा के धर्म अहिंमा से ब्रह्मचर्यं तक के धर्मो का चितवन और अनुभव करने लगता है । उसे यह ज्ञान प्राप्त हो जाता है कि आत्मा के सही धर्म या लक्षण क्या है यह ज्ञान होते ही वह इन्हीं का चितवन या आराधन करने लगता है ।
इस प्रकार इन अनुप्रेक्षाभावों की चर्चा करते हुए इतना तो निर्विवाद कहा जा सकता है कि जैन साधना में ध्यान को अत्यन्त महत्व दिया गया है । जैन धर्म में सामायिक एवं जो अनुप्रेक्षा भावों का चितवन है वही ध्यान का मूल है । साधक क्रमशः बाह्य भौतिक विश्व, भौतिक सुख-दुख, बाह्य देह आदि का अतिक्रमण कर मनोजगत, आध्यात्मिक आनंद एव आत्मा में लीन होने लगता है । वह इस सिद्धि के लिए ध्यान-साधना करता है । श्वास पर नियमन करता है । शरीर में चक्रों को जागृत बनाता है । नाभि चक्र से उसकी यात्रा का प्रारंभ होकर क्रमशः सहखचक्र पर पूर्ण होते होते वह परम पद या निर्वाण को प्राप्त होता है । फिर वह जे' चाहता है वह अनुभवता है । मन उलका होता है- वह मन का नहीं । ज्ञान का नेत्र उन्मीलित होते ही वह सत्य का आलोक निहारता है | ज्ञान का बोध होते ही तिमिर को हटाता है । फिर जिस आत्मानुभूति या आत्मानंद का अनुभव करता है - वह अलौकिक निरान 'द होता है । बस ! ध्यान इतना ही रखना है कि इस आनंद के लिए मात्र अकेला ही जाना होगा । संसार छोड़ना होगा ।
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