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चार आदि की ओर उन्मुख होता है । शरीर की सुख-सुविधा सौन्दर्य और लोलुपता के कारण भक्ष्याभक्ष्य खाने में विवेकहीन हो जाता है । वह भूल जाता है कि शरीर अनंत रोगों का घर है वह | मल मत्र आदि से भरा है । जिसे सही ज्ञान या आत्मजागृति प्रात होती है वह इस शरीर के मोह को त्याग देता है । निर तर सोचता है कि अरे ! यह तो अशुचे का घर है। इसमें फँसे आत्मतत्व को मुझे शुचिता की ओर ले जाना है इस का एका-एक छिद्र गंदगी का द्वार है । सुगंधित द्रव्य भी इसे सुगंधमय नहीं कर सकने उनसे वे द्रव्य भी दुर्गंध युक्त हो जायेगे । एसे अशुचि तन के प्रति सावक निर्मोही बनकर जीता है । उसकी समष्टि बाह्य शरीर से हटकर अतरात्मा की ओर लग जाती है । फिर उसे भोजन से अधिक भजन में आनद मिलता है । शरीर से अधिक आत्मा का सौन्दर्य उसे भाने लगता है |
(७) आस्त्रवानुप्रेक्षा : आव अर्थात आना । इस आत्मा के माथ शुभ या अशुभ कर्म निर ंतर जुड़ते रहते है । इन शुभा - शुभ कर्मो का आत्मा के साथ जुड़ना ही आस्त्रव है । चाहे शुभ कर्म हो - चाहें अशुभ कर्म आत्मा को दोनों प्रभावित करते हैं । अपनी अपनी कार्य सम्पन्नता के कारण वे पुण्य पाप का बोध कराते हैं परिणाम स्वरूप दोनों संसार में आवागमन कराने वाले पदार्थ होने से मुमुक्षुजीव उन्हें आत्मा के साथ जुडने से बचाता है । इन कर्मो का आगमन सागर के ज्वार सा होता है जिसे मात्र ध्यान या साधना से ही रोका जा सकता है । यों कहा जा सकता है कि ये कर्म चिकने पत्थर से हैं जिन पर पांव पड़ते ही फिसलन हो जाती है ! साधक ? जिसे भेद - विज्ञान हो गया वह निररंतर सजग हो जाता है । चर्मचक्षु के स्थान पर वह ज्ञानचक्षू से या साधना के तीसरे
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