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है | संसार का क्रय भी मृत्यु रोग से बचा नहीं सकता । मनुष्य को कर्मो के फल भोगने ही पड़ते हैं । इस सत्य को समझने वाला सम्यदृष्टि शाश्वत शरण में जाता है । वह स्पष्ट रूप से जान लेता है कि संसार के पदार्थ कभी शरण नहीं दे सकते ।
३ - संसारानुप्रेक्षा : प्रत्येक जीव मुक्ति चाहता है । वह संसार के आवागमन से मुक्त होकर मोक्ष में स्थिर होना चाहता है । संसार जन्म, मरण, रोग आदि का स्थल हैं । जीव कर्म के निमित्त से संसार में भ्रमण करता है । एवं संसार से उत्पन्न वासनायुक्त संसार में भटकता है । ससार के कथित सुखों के पीछे भटकता है । यह संसार की भटकन ही युगयुगों तक पुनः पुनः जन्म मरण के चक्कर काती है । ऐसे संसार से मुक्त होने की भावना करते हुए साधक संसार की वासनाओं में फसने से बचता है । भोग विलासेंा से दूर रहता है । संसार मुक्ति की निरन्तर खेचना करता है ।
४- एकत्वानुप्रेक्षा : हम कितने भ्रम में जीते हैं यह मान कर कि मैं परिवार वाला हू । मेरे साथ परिवार, समाज है । परन्तु यह भ्रम उसका टूट जाता है जिसको धर्म की आँख प्राप्त होती हैं; अर्थात जिसने सम्यकदृष्टि से इस सत्य को समझ लिया है कि मैं अकेला जम्मा हू । अपने समस्त कर्मों के बांध मुझे अकेले ही भोगने पडेंगे । जन्म-जरा-रोग-मृत्यु आदि के दुख में मेरा कोई सह भागी नहीं होगा | अन्य उसे दूर भी नहीं कर सकेगे | आज भी अपने माने हुऐ हू वे मृत्यु के पश्चात मात्र इस देह को स्मशान तक ही ले जा सकेंगे । ऐसा ज्ञान प्राप्त करने वाला फिर संसार में जलवत कमल की भाँति एकत्व भाव धारण करके आत्मा और धर्म को ही अपना एक मात्र साथी मानने लगता है । परद्रव्य और परजनों
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