________________
पनपने लगती है। फिर साधना के लिये शरीर को भोजन कराता है रस लोलुपता के लिये नहीं । वह कायोत्सर्ग द्वारा शरीर के प्रति मोह त्यागता जाता है । बाय करट या प्रलोभन उसे डिगा नहीं' सकते । बाहुबली के शरीर पर वेले' चढ जाए या शरीर पर चीटी सर्प घूमते रहें कोई अनुभव ही नहीं होता | शरीर तो गौग हो जाता है आत्मा ही साध्य बन जाता है । ऐसा साधक निर्भार और पूर्ण निर्भय वन जाता है । शुक्ल लेश्यायें दीप्त हो उठती हैं । साधक जीतेन्द्रिय बन कर तीर्थकरत्व तक प्राप्त कर सकता है।
इन अनुप्रेक्षाओं के १२ भेद किए गए हैं...
१-अनित्यभाव २-अशरणभाव ३-संसारभाव ४-एकत्वभाव ५-अन्यत्व भाव ६-अशुचिभाष ७-आलयभाव ८-संवरभाव ९-निर्जराभाव १०-लोकभाव ११-बोधिदुर्लभभाव १२-धर्मस्वागतभाव
१-अनित्यानुप्रेक्षा : निरन्तर परिवर्तित, क्षयमान संसारके प्रति जब साधक इस प्रकार विचारने लगता है कि आत्मा समस्त विकारों से रहित है । संसार के समस्त भौतिक सुख, धन धान्य, परिवार आदि के सुख अनित्य है, नष्ट हो जाने वाले हैं । पानीके बुलबुलों की भांति फूट जाने वाले हैं। अज्ञानवश या प्रमादवश ही लोग उसमें लिप्त रहते हैं । इस प्रकार यह संसार की अनित्यता का ध्यान करते हुए आत्मा का चिंतन करते हुए शाश्वत मोक्ष की ओर ध्यानस्थ होने लगता है ।
२-अशारणानुप्रेक्षा : मृगमरीचिका जैसे संसार को अपना रक्षक या शरण मानने वाला साधक सत्यज्ञान के प्रगट होते ही सम्यद्गर्शन ज्ञान-चरित्र रूपी त्रिरत्नों को ही समा शरण मानने लगता
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org