________________
बारह भावना या अनुप्रेक्षाभावना
बारह भावनाओ के नाम से प्रायः प्रत्येक जन परिचित है | इनका पठन भी प्राय: नित्य करते हैं । परंतु इनके हृदय या अन्तररंग भाव से कम ही परिचित होते हैं । हम जानते हैं कि जैनधर्म की नींव अहिंसा आदि पंचद्रत है और त्याग आदि भाव उसकी इमारत हैं । भोगों' को हेय और त्याग, सरलता आदि भाव प्रेय रहे हैं । पुद्गल अर्थात पंचभूत के शरीर से निर्मोह एव आत्मा की उज्जवलता एवं परिष्कार के लिए सदैव चितवन किया गया है । बाह्यजगत से आन्तरिक जगत की ओर मुड़कर चचलता से स्थिरता की ओर प्रतिष्ठित होने की निरंतर भावना उसमें समाई हुई है । मन के घोड़े पर संयम की लगाम की उसमें निर ंतर आदेश है । संसार यद्यपि राग-रंग की झिलमिलाहट से दमकता है तथापि वह अनित्य, मर्त्य, परिवर्तनशील आदि युक्त है । ऐसे संसार से विमुक्त होकर अमर, नित्य, अजन्मा, आत्मा की साधना एव आवागमन से मुक्त मोक्ष की कामना का निर्देश किया गया है । तात्पर्य कि अनित्यता से नित्यता, मर्त्य से अमर्त्य, अंधकार से प्रकाश, शरीर से आत्मा और चंचलता से स्थिरता की ओर जाने की क्रिया और उसका नित्य स्मरण व आचरण ही इन भावनाओं का मूल उद्देश्य है ।
अनुप्रेक्षा अर्थात निरंतर पुनः पुनः चिन्तन करना | मोक्षमार्ग का पथिक वैराग्य भाव की वृद्धि हेतु इन अनुप्रेक्षा भावों का चिंतबन करता हुआ साम्य स्थिति मे प्रतिष्ठित होता है । तत्वार्थ सूत्र में ऐसा ही उल्लेख है । प्रसिद्ध ग्रंथ धवला में कहा है कि कर्मों की निर्जरा हेतु श्रुतज्ञान का परिशीलन करना ही अनुप्रेक्षा है । कहा भी है -
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org