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पौषधोपवास शिक्षाव्रत :
पालन,
पौषधोपवास व्रत में उपवास एकासन आदि के नियम संयम आदि का समावेश होता है । इसकी चर्चा हम व्रत-उपवास के अन्तर्गत कर चुके हैं । अतः यहां पुनरावृत्ति नही करेंगे । अतिथि संविभाग शिक्षाव्रत :
यद्यपि अतिथि सेवा सत्कार का भाव भारतीय संस्कृति की अपनी विशिष्टता है । जैनाचार्यों के कथनानुसार दाता और पात्र दोनो की रत्नत्रय धर्म की वृद्धिहेतु समकित आदि गुणो से युक्त अनागार साधुओं को निरपेक्ष भाव से दान देना या सेवा करना अतिथि संविभाग शिक्षाव्रत का पालन करना या धारण करना है ।
कार्य मे किसी लौकिक धनसंपति आदि की प्राप्ति की ऐषणा नहीं होनी चाहिए | सच्चे अतिथि परिषह सहन करने वाले, मोक्ष मार्ग में आरुड मुनि हैं । जो तपस्या एव ज्ञान वृद्धि के लिए पथ का व्रत पालन करते हुए श्रावकों के घर आहार के लिए पवारते हैं । नवधा भक्तिपूर्वक इनका आहार देना, वैय्यावृत्ति करना अतिथि संविभागवत हैं ।
दूसरे शब्दों में कहें तो धर्माचरण में तल्लीन मुनि-त्यागी aat की भोजन आदि द्वारा सेवा करना इसका ध्यय है । इस प्रकार के अतिथियों की सेवा से हमारा मन निर्मल होता है । भावनाए पवित्र होती हैं । और हम वासना आदि कपायों से मुक्ति का अनुभव प्राप्त करते हैं ।
इन बारह व्रतों की चर्चा से यह स्पष्ट होता है कि हम अपने व्यावहारिक जीवन मे सरल बने, सत्य का व्यवहार करें, हिंसा से बचें, संग्रह आदि के दूषणों से मुक्त होकर आत्मसाक्षात्कार की और असर हो । मन-वचन-कर्म एवं कृतकारित अनुमोदन से भी हमारे द्वारा कोई हिसात्मक वृत्ति न हो । हम मर्यादा का पालन करते हुए जीवन जीने की कला सीखे | जिसे जीवन जीना आ गया उसे मुक्ति का पथ स्वयं मिल जाता है ।
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