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अनर्थदंडवत ; ती निश्चित सीमाओं का नियम पाल्ते हुए भी उन सीमाओं तक भी निष्प्रयोजन गमन नहीं करता । यदि इन सीमाओं तक जाने में धर्म की हानि हो, हिंसादिक कार्य करने पढें या लोक विरुद्ध कार्य होते हैं तो वह उन सीमाओ को भी संकुचित कर लेता है । वहां जाना ही नहीं है, क्योंकि इससे दीर्घं दुःख दंड भोगने पड़ते हैं। वहां प्रमाद का अतिचार होता है | इसका पाठक ऐसा उपदेश नहीं देता जिससे हिं हो । ऐसा सावन न देता है न देता है जिससे हिंसादि कार्य कार्यान्वित होते हो। वह रागद्वपमय होकर किसी के अहित की बात नहीं सोचता । चिल में क्लेप, मिथ्यात्व बढ़ानेशल साहित्य का पठन-पाठन, कथन या श्रवण नहीं करता । निष्प्रयोजन पृथ्वी, जल आदि पांच प्रकार के जीवों का छेदन - जड़न नहीं करता | वह अपशब्द या हृदय को कष्ट देने वाले शब्द नहीं कहता और न हँसी-ठट्ठा ही करता है । । इस व्रत में अहिंसा को अधिक मज -- बूत बनाने का ही प्रयास है । प'चभूत जीवों की करुणा पर इसमें विचार किया गया है ।
भोगोपभोग परिमाण व्रत :
इस व्रत के अन्तर्गत रागादि भावो को मंद करने के लिये परिमाण की मर्यादा में भी समय या काल के प्रमाण से कम से कम hara को परिमित या सीमित बनाने का प्रयास करना या उनमें भी अत्यल्प परिमाण करना ही भोगोपभोग परिमाण व्रत हैं । ऐसा परिमाण त कुछ महिना वर्ष या आजीवन के लिए धारण किया जाता है । जिन वस्तुओं के खाने या प्रयोग करने में त्रस जीवों की शंका हो उनका त्याग किया जाता है । जर्मीकंद जैसी वनस्पति का संपूर्ण त्याग अपेक्षित हैं । जैनधर्म में " भक्ष्या
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