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में अनावश्यक हिंसा से दूर रहता है । परिमाण ब्रत का पालन करता है । अभक्ष्य भोजन को त्यागता है । मैत्री, प्रमोद, कारुण्य एव' माध्यस्थ भाव को धारण करके गठप हिंसा ही नहीं भाव हिंसा का भी त्याग करता है।
जो भय, स्नेह, लोभ आदि से प्रेरित होकर कुदेव, कुशान्त्र एव कुगुरू की वन्दना नहीं करतो | उत्तरोत्तर निष्परिग्रही बनता जाता है इस त्याग में जिसका मन प्रफुल्लित रहता है। इस प्रकार जो सलक्षणों से विभूषित है। वहीं जैन है । इस व्याख्या में उस हर व्यक्ति का समावेश हो सकता है जो उक्त गुणां का धारक हो भगवान महावीर ने ऐसे गुणों को ग्रहण करने वाले को भव्य जीव मान कर अपने संघ में स्थान दिया ।
उपरोक्त विवेचन से हम जैन एव श्रावक इन दो शब्दों का अर्थ एव' उनमें सन्निहित भाव को समझ सके । आत्मनिरीक्षण करने पर यह कहा जा सकता है कि हम जन्म से जैन हैं क्योंकि हमने जैन कुल में जन्म लिया है । पर, लक्षणों से हम जैन नहीं है। यदि हमें सचमुच जैन कहलाना है या जैन बनना है तो जैनत्व के लक्षणों का अपने में विकास करना होगा ।
___ इसी प्रकार जैन अर्थात बनिया इस पर भी विचार करना होगा । जैन धर्म का इतिहास साक्षी है कि यह धर्म क्षत्रियों का धर्म रहा । सभी चौबीस तीर्थकर क्षत्रिय राज कुलोत्पन्न थे । वे धीर वीर-गंभीर राजकुमार थे । सर्वसुख-प्रदायी भौतिक सम्पति होते हुए आत्म कल्याण एव विश्वकल्याण के लिए वे साधनापथ के पथिक बने । सारे वैभवों को तिलांजलि देकर इद्रियसंयम धारणकर तपस्या में लीन हुए। उन्होंने असह्य कष्ट भी सहिष्णुता से
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