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.. भारतरत्न स्व. लोकमान्य तिलक ने भी जैनधर्म को अनादि धर्म मानकर पौराणिक सत्य का निर्विवाद रूप से स्वीकार किया है। पुराण में रूषभ की सर्वोच्चता प्रतिपादित की गई है।
नागरी प्रचारणी सभा का शीप प्रकाशित सूरसागर में भी रुषभदेव की प्रभुता का उल्लेख इन शब्दों में हुआ है
रिषभदेव जब वन को गये नवसुता नौ खण्डनृप भये भरत सो भरतखंण्यकारंड ... करे सदा ही धर्म एक न्याय ।
मथुरा से उत्खनन के द्वारा प्राप्त भग्नावशेषों में भी रूपभदेव की खडगासन मूर्ति एव उस पर उत्कीर्ण बौल की आकृति भी जैन धर्म की प्राचीनता की द्योतक है !
अपने इतिहासपरक शोध-निबंध 'हिमालय में संस्कृति" में श्री विश्व भर सहाय प्रेमी लिखते हैं कि भारतीय संस्कृति के निर्माण में प्रारभ से ही जनों का सहयोग प्रदान रहा है । मोहनजोदडो से प्राप्त जैनमूर्तियाँ उनकी विकसित शिल्पकला के नमूने हैं।
श्री व. सुन्दरलाल ने हजरत ईसा तथा ईसाई धर्म नामक ग्रंथ में लिखा है कि प्राचीन युग का अध्ययन करने से पता चलता है कि पश्चिमी एशिया इजिप्त इरान ग्रीस एच इथोपिया के जंगलों और पर्वतों पर उस समय हजारो जैन संत-महात्मा निवास करते थे। ये संत-महात्मा वहाँ कठोर तपस्यामय जीवन बिताते थे । एव त्याग और ज्ञान के लिए प्रसिद्ध थे ।
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