________________
३९
स्वपत्नि का भी समागम नहीं करना चाहिए | अरे ! इतना ही नहीं किसी की 'शादी आदि कार्यों में निमित्त बनना, पुरुष रहित घर में जाकर स्त्री से संवाद करना, व्यभिचारीणी स्त्री या पुरुष से बात करना, कामसेवन के अंगो के उपरांत क्रीडा करना भी व्यभिचार की कोटि में माने गये हैं । परस्त्री या परपुरुष के अंगो को निहारना, रागकथा सुनना आदि भी ब्रह्मचर्य के अतिचार माने गये हैं । तात्पर्य यह है कि कामवृत्ति को जन्म देने वाले समस्त क्रिया कलापों से दूर रहना चाहिए ।
. ब्रह्मचर्य की साधना के लिए आवश्यक है-संयम । चंचल इन्द्रियों और काम पर अधिकार । भले ही मोक्ष की लालसा से नहीं पर संयम और स्वास्थ्य की दृष्टि से व्रत, उपवास आदि का बड़ा महत्व है । इनसे वृत्तियों पर लगाम लगाई जा सकती है । ध्यान की साधना से मनकी वृत्तियों पर संयम सबसे महत्वपूर्ण काय है। संयम ही व्यक्ति की इन्द्रीयों को भटकने से बचाने वाला साधन है । फिर, काम-वासना से बचने का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंकुश है । एकाग्रता के लिए भी यही संयम मुख्य उपाय है । एक ही वाक्य में कहू' तो "ब्रह्मचर्य की साधना ही सभी साधना का मूल है " एक ही साधै सब सधै इसी से संभव है। . इस प्रकार साधू को पूर्ण रुपेण और · गृहस्थ को एक देशीय रुप से इस व्रत का पालन तनयोग और मनयोग से करना चाहिए । परिग्रह-परिमाण व्रत :
परिग्रह अर्थात विशेष रुप से वस्तु का ग्रहण और संग्रह या आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह परिग्रह है। निश्चित दृष्टि से आत्मा के अलावा जितने भी रागद्वेष आदि भावकर्म, ज्ञाना... वरणादि द्रव्यकर्म, औदारिक नो कर्म आदि सभी परिग्रह हैं । ये
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org