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आत्मा पर बोझ बनकर उसे अस्थिर या लाभ में फंसाकर संसार में भटक ते हैं व्यवहार दृष्टि से स्त्री, पुरुष, धन-धान्य, गृह, क्षेत्र, वस्र, आभूषण आदि सभी पर पदार्थ है जिनका लोभ मनुष्य को लोभी, चोर कुकृत्य की ओर उन्मुख करता है। इनकी ऐषणा उसे अशांत बनाती है और अप्राप्ति से वह दुखी-निराश बन जाता है। इन पर-पदार्थों में जो मोह रखता है-उसे परिग्रह का दोष लगता है । इन परिग्रहों का संपूर्ण त्याग मुनियों को होता है: जबकि श्रावक आवश्यकतानुसार उन्हें रखता है । उनका परिमाण रखने के कारण वह अणुव्रती साधक है । इस परिग्रह में मूलतः देखा जाये तो वस्तु से अधिक उसमें हमारी ममता या लालच महत्वपुर्ण है। यही लालसा को उत्तरोत्तर बढ़ाना-कुकृत्यो' की ओर प्रेरित करता
अनादि काल से मनुष्य में यह संग्रह वृत्ति रही है, जो देश काल के अनुसार उत्तरोत्तर बढ़ती गई है। आवश्यकता की पुति के पश्चान व्यक्ति में भोग-विलास की भौतिक भूख बढ़ने लगी । वह अधिकाधिक आराम के साधनो में मुख मानकर उन्हें जुटाने में ला गया । इन उपकरणों के लिए धन की सर्वाधिक आवश्यकता हुई । इस धन की प्राप्ति के लिए उसने अनर्गल रास्ते अपनाने शुरु किए । चारी, असत्य और हिंसा का भी कार्य करने के लिए व्यक्ति प्रवृत्त हुआ। संग्रह की वृत्ति के कारण उसमें शोषण की भाव वृत्ति पनपी । परिणाम स्वरूप शक्तिशाली या तिकडमी व्यक्ति संपन्न बनता गया और शोषित भूखो मरने लगा । इसी प्रकार संग्रह करने वाला या परस्वहरण करने वाला परोक्ष रूप से हिंसा का हिस्सेदार ही बना । इस धन संग्नह की भावनाने व्यक्ति को ही नहीं समाज, राष्ट्र और विश्व को अमीर और गरीब के खेमे में बाँट दिया । भादमी में आदमी ने प्रति घृगा भरदी । उसका हृदय कार हो
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