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व्यक्ति जो साधन सम्पन्न नहीं है अपरिग्रही ही कहलायेगा । मूल भाव हैं-वस्तु के होने पर भी भावों में सं ह की वृत्ति और लाभ नहीं | त्याग या अधिक सुविधाओं को घटाकर परिमाण करने का, दान देने पर बड़ाई की चाहना न रखकर, प्रसिद्धि की भावना से मुक्त रह कर उस धन से ममत्व छूटना ही सच्चा दान एव परिग्रह का त्याग है । जब व्यक्ति परपदार्थों से ममत्व छोड़ता है तभी वह तटस्थ या निलिप्त भी बनता है । सुख-दुःख में समता धारण कर सकता है । तभी वह परिग्रह को छोड़ पाता है । जब हम बाह्य परिग्रहों से मुक्त होने लगते हैं तभी अन्तर-परिग्रह कषाय आदि से भी मुक्त होने लगते हैं । दृष्टि ही बदलने लगती है । यही इच्छाओं को रोकना सच्चा तप कहा गया है । और शल्य रहित को ही सच्चा व्रती कहा है ।
__कुछ लोग तक करतें हैं कि ईमानदारी से धन कमाने का निश्चय करें तो भूखों मर जायें । पर, ऐसे लोगों ने उदाहरण ही गदे नाले का लिया । अच्छा होता वे प्रवाहित नदी की ओर निहारते । बहता जल ही निरंतर शुद्ध रहता है । कुकर्म से प्राप्त धन अशांति, मानसिक रोग एव उसके रक्षण के लिए व्याकुलता ही बढ़ाता है । अपरिग्रही श्रावक को लोभ में आकर मनुष्य एव' पशुओं से शक्ति से अधिक काम नहीं कराना चाहिए । युद्ध आदि की परिस्थिति में संग्रह या कालाबाजारी नहीं करनी चाहिए । अन्य के सुख से द्वेष नहीं करना चाहिए । अधिक लाभ के लिए लालायित नहीं होना चाहिए तथा लाभ के लिए लोभवश मर्यादा नहीं बढ़ानी चाहिए।
__ भगवान महावीर के इन सिद्धांतो को भूलने के कारण ही शोषित लोगों की भूख उफन पडी । उसमें ईर्षा जन्मी और फिर रक्तपात युक्त क्रांति हुई । कार्ल मार्क्स के इसी सिद्धांत का प्रयोग
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