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धन से जीवन बीतता है तत्र वह धर्म, साधना और मुक्ति पथ का पथिक बनने लगता है । कहावत भी है- 'जैसा खावे अन्न बैसा उपजे मन" । उसकी वृत्ति में निर्भयता, निष्कपटता, सत्यवक्तव्य आदि के गुण विकसित होते हैं । वारानाओं पर उसका संयम रहता है | परंतु, जब व्यक्ति भौतिक सुख, कामवासनाओं की पूर्ति के लिए भोग विलास की ओर दौड़ना प्रारंभ करता है तब उसकी वृत्तिया में तामसा पन कामेच्छायें फूटती हैं । देह का सुख ही उसके लिए सर्वस्त्र बनने लगता है । संयम उसेसे कोसों दूर हो जाता है । विकार उसके चेहरे को घेर लेते हैं । शीलभावों की न्यूनता उसे पथ भ्रष्ट करती है साधना का तो प्रश्न ही नही रहता ।
शब्द को दो अर्थों में समझा जा सकता है । एक के साधारण शब्द के बीच अर्थ-शीलनत का धारण करना । साधू लिए संपूर्णत्रत का पालन एवं गृहस्थ के लिए स्वपत्नी में संतोष करते हुए अन्य सभी को माता-पुत्री या बहन की भावना से देखना । दूसरा अर्थ है - ब्रह्म में चर्या करना । अर्थात् ब्रह्म में रमण करना । सरल शब्दों में कहें तो आत्मा में स्थिर होना । जब साधक बाह्य कषाय आदि संसारिकता से मुक्त बनकर आत्मा की ओर उन्मुख होता है । वाह्य जगत से अंतर जगत में प्रवेश करता है । जव भौतिक सुखों को त्यागकर आत्मिक सुखों की ओर मुड़ता है तब वह बाह्य या आत्मा में स्थिर माना जाता है । वही ब्रह्मचारी है । ऐसा ब्रह्मचर्य महाव्रती को ही होता है ।
गृहस्थ जीवन में एक पत्निव्रत का पालन करना ब्रह्मचर्य के अन्तर्गत माना गया है । इसमें स्वयं के संकल्प और संयम की महत्ता है । समाज या राज्य के भय से भोग आदि न कर सकता ब्रह्मचर्य नहीं है इतना ही नहीं -स्वपत्नी में भी अतिशय भोग की इच्छा भी व्यभिचार है । उसकी इच्छा के बिना साहचर्य व्यभि -
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