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गुणत्रत के अन्तर्गत दिगत, अनर्थदंडनत एव भोगोपभोग परिमाणव्रत का समावेश होता है ।
शिक्षानत के अन्तर्गत देशावगाशिकवत, सामायिकव्रत, पौषधोप वासन एव' अतिथिसंविभाग शिक्षामतों का समावेश किया गया है । महाव्रत :
अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एव परिग्रह को महाव्रत या मुख्य व्रत कहा गया है । जीवन में जिसने भी उपरोक्त व्रतों को धारण किया उनका जीवन निर्मल बन जाता है । वह राग-द्वेष से मुक्त हो जाता है | उनका जीवन और कवन, कथनी और करनी में कही द्वैध नहीं होता उसके समस्त कार्य सच्चे होते हैं । संतोष रूपी धनका वह धनी होता है ।
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साधु
अचार्यों ने महात्रतों के पालनार्थ इसके भी साधू और श्रावको के संबंध में दो विभाग किए हैं । एक महात्रत दूसरा अणुभत । के लिए इन नियमो का पूर्ण रुपेण पालन करना अनिवार्य है । दूसरे शब्दों में वहीं साधु है जो इसका पूर्णरुपेण मन-वचन-कर्म से किन्ही भी परिस्थितियों में पालन करता है । जबकि गृहस्थ को जीवनयापन और गृहस्थी चलाने के लिए अनेक प्रकार के आरम्भ, और कार्य करने पड़ते हैं वह साधू की तरह पूर्णरुपेण इन व्रतो का पालन नहीं कर सकता । उसके लिए संभव नहीं । इसका मतलब उसे नियमों में से छूट देना नहीं है । जीवनयापन के लिए आवश्यक क्रियाओं को करते हुए भी वह ऐसे व्यापार को न करे जिसमें हिंसा का प्रश्रय लेना पडे । अनावश्यक मात्र धनोपाजैन के लिए झूठ न बोले । चुगली या झूठी गवाही न दे । चोरी न करे, चोरी का माल न ले । कम न तोले 1 एक पत्नीमत का धारक हो । भोग विलास को ही जीवन न बना ले | अतिशय परि
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