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जैनधर्म में प्राण अहिंसा
प्रत्येक धर्म का कोई न कोई विशिष्ट सिद्धांत होता है उसके आधार पर उस धर्म की पहिचान होती है । उदाहरण के तौर पर तिम्ती धर्म का मुख्य सिद्धांत प्रेम है । इस्लाम धर्म समानता और
केश्वरवाद से जाना जाता है। इसी प्रकार जैनधर्म में अहिंसा का प्राधान्य है । अहिंसा ही उसकी मूल पहिचान बन गई है । इसीलिए इसे अहिंसामयी धर्म कहा गया है । सच भी है-अहिंसा का जितने सूक्ष्मातितूक्ष्म वर्णन एवं जीवन में उपयोग करने की बात जैनाचार्यों ने कहीं उतनी अन्य धर्मों में नहीं | इसका मतलब यह नहीं कि अन्य धर्मो ने अहिंसा का स्वीकार नहीं किया । पर उसे ही सर्वस्व नहीं माना । जब कि अन्य सारे उत्तम तत्वों में भी अहिंमा को प्राधान्य इस धर्म में दिया गया है । _____ इस तथ्य की पूर्वभूमिका पर थोडासा विचार करें तो पता चलता है कि श्रमण संस्कृति स्वयं में स्पष्ट रही है । इसने प्राणी मात्र ही नहीं प्रत्येक प्रकार के पदाथों में जीवों की संकल्पना की है । स्वयं को केन्द्र में रखकर यह अनुभव किया कि अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियों में जो स्थिति हमरी होती है । जो सुख या दुख मुझे होते हैं वैसे ही समस्त प्राणियों को होते होंगे । इसी
लिए उन्होंने कहा कि यदि किसी अन्य से तुम्हें शारीरिक या ... मानसिक कष्ट पहुँचता है तो वैसा ही दूसरों को पहुँचेगा । एक
वस्तु जो एक प्राणी के लिए सत्य है वह सभी प्राणियों के लिए वैसी ही होगी | इस दृष्टि से जैनधर्म का अहिंसा का सिद्धांत प्राणीमात्र के लिए एक सा लागू होता है । जबकि अन्य धर्मो में पशुबलि या नरबलि को धर्म का साधन मानकर हिंसा का भी स्वीकार किया । इस हिंसा में पुण्य की कल्पना की ।
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