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की प्राप्ति के योग्य मैं बनू । मेरा भी कर्म क्षय हो। मैं भी मोक्ष मार्गी बनू ।
जैनधर्म ही ऐसा धर्म है जो प्रत्येक आत्मा में परमात्मा बनने की क्षमता निहारता है । जहां व्यक्ति ही नहीं गुणों की महत्ता का स्वीकार है । ऐसे वैज्ञानिक निष्पक्ष एवं गुणों की एक गुणीजनों की पूजा करनेवाला धर्म नास्तिक कैसे कहा गया यह भी आश्चर्य की बात है ।
जैनधर्म की विशिष्टता
भारतवर्ष में संस्कृति के प्रारंभ से ही वैदिक एव श्रमण संस्कृति का समान रूप से उदय और विकास हुआ है । पार्श्वनाथ तक इन दोनों धाराओं का परिचय इन्हीं नामों से मिलता रहा । हिंदू और जैन शब्द पार्श्वनाथ के पश्चात ही अस्तित्व में आये लाते हैं । इससे पूर्व इन शब्दों का प्रयोग धर्म के लिए प्रयुक्त नहीं मिलता है । भ. महावीर के समय में स्पष्ट और प्रचलित रुप इन शब्दों का प्रयोग होने लगा था । जैन और हिन्दू शब्द मूल रुपसे किस संस्कृति के द्योतक हैं इसे समझना होगा । कहां दोनों की भेद रेखा खिची है उसे जानना होगा ।
सामान्यतः दोनो मतों के अनुयायी द्वेषवश या अज्ञानवश एक दूसरे के विषय में विविध अतार्किक विधान करते रहते हैं । हिन्दू लोग जैनधर्म को नास्तिक या संशय दर्शन का धर्म कहते हैं तो जैन लोग हिन्दूधर्म को लीला के नाम पर सराग देवों का हिंसात्मक यज्ञ कराने वाला धर्म कहते हैं । वास्तव में इन विवानों में दोनों की अल्पमति दर्शित है ।
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