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में इस प्रकार हर व्यक्ति को स्वयं भगवान बनने की क्षमता प्राति का विधान है । संसार रचना का क्रम भी निरंतर चलता रहता है । उत्पाद - व्यय एवं प्रोव्य के सिद्धांत पर वह अनवरत रुप से बनता और क्षय होता रहता है । इस दृष्टि से उसका कभी पूर्णनाश नहीं हो सकता | नवीन का जन्म पुराने का क्षय एक स्वाभाविक प्रक्रिया ही बन गये हैं ।
इम स्वाभाविक प्रक्रिया के कारण किसी व्यक्ति विशेषको कर्ता का संहारक मानना आवश्यक नहीं । संसार स्वयं निर्मित - क्षायिक रूप है । वह परिवर्तनशील है ।
जैनधर्म में भगवान की नहीं पर तीर्थकर की महत्ता है । ऐसे भव्य जीव जिन्होंने स्वयं आत्मसाक्षात्कार किया । जो संपूर्ण निर्भय साधक है । चराचर के प्रति जिनमें करुणा - क्षमा एव सहि ष्णुता है । जो स्वयं की आत्मा को उर्ध्वगति की ओर मोड़तें हैं जो जितेन्द्रीय हैं । ये संसार के उन लोगों को जो अज्ञान एव अंधकार में भटक रहे हैं । उन्हें सत-धर्म का मार्ग बताते हैं । जो विविध स्थानों में तीर्थ अर्थात धर्म सभा का आयोजन कर लोगों को सत्-मार्ग प्रशस्त करते हैं तीर्थ कर होते हैं । जिनकी आत्मशक्ति या ध्वनि इतनी जागृत है कि जिन्हें मात्र ज्ञान प्राप्त है । तीर्थकर का अर्थ ही है जो खुद तरे औरों को तारें । जो मतिश्रुति-अवधि मनःपर्याय एव केवल ज्ञानी हैं । जो रत्नमय मार्ग के पथिक एव मार्ग दर्शक हैं । जो संसार पार उतरने वाले आगम के कर्ता हैं । इन्ही द्वारा प्रणीत मार्ग वही जैनधर्म है । ऐसे उपकारी होने से हम तीर्थकरों की पूजा करते हैं। यहां भो पूजने के भाव में कहीं संसारिक मार्गों की प्राप्ति की एषणा नहीं हैं-अपितु यही भावना होती है कि हे प्रभू जो गुण आपको प्राप्त हैं वैसे ही गुणों
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