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आज
जैन की पहिचान कुछ क्रियाकांड बन गये हैं । हम परिचय के साथ अपनी विशिष्टता बताते हुए कहते हैं कि हम अहिंसक हैं | रात्रि - भोजन नहीं करते । आदि... आदि । पर यह क्रिया कोई जैनधर्मियों की बपौती नहीं । हिंदू-पुराण के शिवपुराण एव मार्कन्डेयपुराण में स्पष्ट उल्लेख है कि रात्रिभोजन मांस भक्षण के समान है एवं रात्रि में जल-पीना रक्त पीने की तरह है । फिर, कदमूल के दोष तो विज्ञान ने भी सिद्ध किए हैं । आज अनेक जैन कदमूल नहीं खाते । ये बात अलग है कि हिंदुओन शिव और मार्कन्डेपुराण के कथन पर अमल नहीं किया ।
इसी प्रकार यदि जैनों के आदि तीर्थ कर ऋषभदेव ने कौश पर्वत पर तपस्या की थी तो शिव की निवास भूमि ही श है । ऋषभ और शिव दोनों के चिन्ह एव बाहन नान्दी हैं । यदि ऋषभ दिगंबर थे तो शिव का दूसरा नाम ही दिगंबर है । इसी प्रकार एक दूसरे से विशेष हैं ऐसी दलीलबाजी, तार्किकयुद्ध व से चलता रहा है । इसके उद्देश्य में एक दूसरे को नीचा दिखाने की हीन भावना प्रेरित है ।
पर, जो वास्तविक एव' स्पष्ट विभाजन देखा है वह इन क्रिया कांडों पर आधारित नहीं है । पर दर्शन के सिद्धांत पर आधारित है । मूलभेद यह है कि हिंदू धर्म में सृष्टि की रचना एवं प्रलय निश्चित है एवं भगवान जन्म लेकर लीलास्वरुप संसार के मार्ग -- दर्शक बनते हैं । लीला पूर्ण कर स्वधाम लौट जाते हैं । ब्रह्मा- - विष्णु और शिव के सर्जन, बालन और संहार के कार्य निश्चित हैं | उन्हें संसार को सुधारने के लिए ( परित्राणाय साधुनां विनाशाय च
क) उन्हें साम दाम दंड और भेद की पूरी छूट है । यहीं जैन धर्म अलग और अपनी स्वतंत्र बात कहता है । जैनधर्म में
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