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भी सम्प्रदायों के लकाने का साधन बना लियो | इसका दुष्परिणाम यह आया कि एक दूसरे के धर्म के उत्तम सिद्वांत जानने-समझने के द्वार ही जद होने लगे । हम बद दरवाजों में समाते गये । अंधकार में खोते गये | सत्य के प्रकाश से वंचित होते गये ।
जहां तक जैनधर्म की प्राचीनता का प्रश्न है तो यह निर्विवाद सत्य है कि उसकी पर परा वैदिक संस्कृति जितनी ही या उस से भी प्राचीन है । अनेक जैन-जनेतर, देशी और विदेशी विद्वानों ने प्राचीनग्रंथो, शिलालेखां एवं उपलब्ध सामग्री का अध्ययन और अनुशीलन करके इम प्राचीनता के तथ्य का स्वीकार किया है ।
'पाणिनीकालीन भारतवर्ष नामक ग्रंथ में प्रसिद्ध इतिहास एव प्राचीन संस्कृति के बहुश्रुत विद्धान डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल अथर्व वेद के दृष्टांत प्रस्तुत करते हुए लिखते हैं-'भिन्न-भिन्न धर्मों में श्रद्धा रखने वाले अनेक प्रकार के लोगों को धरती अपनी गोद में स्थान देती है" यह कथन इस तथ्य को स्पष्ट करता है कि वेदकालीन भारत में विभिन्न धर्म के पालक, बहुभाषी एव रहन-सहन रीतिरिवाज से भिन्न-भिन्न प्रकार के लोग इस देश में निवास करते थे | उनमें पारस्परिक सहयोग एव' मेल मिलाप था । उस समय वैदिक धर्म के उपरांत भी धर्म प्रचलित थे यह निर्विवाद तथ्य है। इस 'अन्य धर्म के सबध में अन्तः एव याद्य साक्ष्य से यही सिद्ध ही है कि उस समय देक धर्म के उससंन श्रमग धर्म ही प्रचलिन था ।
... 'निजम इन विहार के विद्वान लेखक श्री. सी. र यचौधरी ने अनेक मंत्र, शिलालेख एत्र' संशोधन के परिणाम स्वरुप यह स्वीकार किया है कि ऋषभदेव पौराणिक पुरूष थे । महापुराण एवं आदि
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