Book Title: Jain Dharm Siddhant aur Aradhana
Author(s): Shekharchandra Jain
Publisher: Samanvay Prakashak

View full book text
Previous | Next

Page 14
________________ बुद्धि की कमी या हठाग्रह के कारण सम्प्रदाय धर्म के पर्यायवाची बनने लगे । और फिर सम्प्रदाय ही धर्म के नाम से पहचाने जाने लगे । साधन ही साध्य का स्वरुप ग्रहण करता गया | सत्याभास सत्य का स्थान ग्रहण करता गया । मानव ने अकेलेपन को छोड़ कर समूह में रहना प्रारम्भ किया समाज का निर्माग हुआ | समाज व्यवस्था के नियम से और उनका पालन कर्तव्य बना । यही कर्तव्य धर्म की तरह आदर्श और महान बने | समाज की ओर उन्मुख व्यक्ति यह नहीं भूला कि समाज के बीच रह कर भी उसे आत्मकल्याण करना है । प्रवाह में द्वीप की तरह जीना हैं । अतः वह आत्म-परख चिरन्तन धर्म को वह नहीं भूला | दुर्भाग्य यह रहा कि समाज के संगठन में जैसे राजनीति में बलिष्ट का जोर बढ़ा वैसे ही आत्मा और धर्म की अपने ढंग से व्याख्या करने वाले, लोगों के दल बनतें गए । परिणाम स्वरुप संप्रदाग जन्म लेने लगे | समाज इस प्रकार वैचारिक कठघरों में बाटा कि ईश्वरोपासना की विविध पद्धतियो के करघरों में विराटने लगा और धर्म की सजनीन भावना संप्रदाय की संकुचितता के दायरे में सिमटने लगी | इससे सवर्ष और पृथकत्व जन्मा और तत्व क रूप में उभरा। धर्म और सम्प्रदाय इतने गड्डमगड्ड हो गये कि हम इसी मिला बट में भटकने लगे । आज धर्म-हिन्दूधर्म, मुस्लिमधर्म, सिखधर्म, बौद्धधर्म, ईसाईधर्म, जौनधर्म आदि के घेरों में बट गया है । इस से हम शब्द जाल में उलझ गये धर्म के सच्चे स्वरुप को जान ही नहीं पाते । सत्य तो यह है कि जिन्हे धर्म के नाम से जान रहे हैं-वे तो मात्र सम्प्रदाय हैं । सम्प्रदाय सदैव संकुचित अर्थ का ही द्योतक है। वह अपनी दायरेगत व्याख्या, मान्यताओं में से बाहर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 ... 160