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पित कराये वहीं धर्म है । तत्वों के प्रति श्रध्धान्वित बनाये व देह से आगे सूक्ष्म शरीर अर्थात आत्मा की ओर उन्मुख कराये वही धर्म है । इस उन्मुखता के लिए आवश्यक कषायों से मुक्ति, संतुलित निर्भयता, समक्ति भाव आदि को उत्पन्न कराने में सहायक हो ।
__ दूसरी बात यह भी स्पष्ट हो गई कि धर्म और क्रिया कांड नितांत अला अला तत्व हैं । इसका अर्थ यह नहीं कि इस आरा धना को ही छोड़ दे। इसी तथ्य को आचार्यों ने सापेक्ष दृष्टि से इस प्रकार विभाजित किया है कि एक आत्मा को परखने वाला धर्म निश्चय धर्म है । दूसरा बाह्य आराधना से अन्दर की ओर मुड़ने में सहायक धर्म व्यवहार धर्म है। इसी लिए व्यवहार और निश्चय दो धर्म का उल्लेख हुआ है । इस निश्चय और व्यवहार की चर्चा विस्तार से आगे करेंगे ।
धर्म और सम्प्रदाय -
धर्म शाश्वत होता है । उसमें बदलाव या परिवर्तन नहीं होते यह सभी कालों में स्थित तत्व है | धम' साध्य है । आत्मा का लक्षण या मूल स्वभाव है । जव कि धार्मिक कृया युगानुरुप परिवर्तित भी होती रही है । वे धर्म तक पहुँचने का साधन रही हैं । क्रिया व्यक्तिपरक परिवर्तित होती रहीं जबकि धर्म में यह नहीं हुआ । उदाहरण के तौर पर धर्म अहिंसा है, धर्म सत्य है, धर्म ध्यान है आदि मूल तत्व विश्व की सभी मान्यताओं या दर्शनों में एक ही रहे हैं । नियाकांड या व्यक्ति की येधणाओं से ६म की व्याख्याये अपने अपने ढंग से की गई-परिणाम स्वरुप धम के मूल रूप का ह्रास हुआ और उससे सम्प्रदायों ने जन्म लिया ।
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